सुधियों के भुजपाष - आचार्य भगवत दुबे

सुधियों के भुजपाष- आचार्य भगवत दुबे


यादों का मधुमास


मुझे सताती है प्रिये, सदा तुम्हारी याद 

सब कुछ लगता पूर्ववत, तीन दशक के बाद 

तीन दशक के बाद, लगे तुम आस-पास हो 

यादों का मधुमास, न कम जिसका उजास हो 

कह भगवत कविराय, न इक पल को है जाती 

कितनी मादक लगे, याद जो मुझे सताती


अर्धागिनी ललाम


विमला जी की याद में, सदन ‘विमल स्मृति’ नाम 

रहीं परायण धर्म में, अर्धांगिनी ललाम 

अर्धांगिनी ललाम, चारुता थी चरित्र में 

सबको बाँधे रखा, प्रेम पावन पवित्र में 

कह भगवत कविराय, दुखी है अनुजा मिथिला 

यादों में हो बसी, प्राण प्रिय प्यारी विमला


आँसू की जागीर


सब कुछ छीना वक्त ने, बढ़ी विरह की पीर 

छीन नहीं पाया मगर, आँसू की जागीर

आँसू की जागीर, यही तो अक्षय धन है 

इसके ही आधीन हुआ, नीरस जीवन है 

कह भगवत कविराय, लिखा एकाकी जीना 

बस आँसू को छोड़, वक्त ने सब कुछ छीना





सुधियों के भुजपाश


फीके-फीके हो गये, प्रिये सरस मधुमास 

जकड़े रहते हैं मुझे, सुधियों के भुजपाश 

सुधियों के भुजपाश, कसकती रहतीं यादें 

छीनें दिन का चैन, रात की नींद उड़ा दें 

कह भगवत कविराय, न हो यह साथ किसी के 

प्रिया-बिना त्यौहार, लगा करते हैं फीके


प्रणय पुराण


हमने मिलकर थे पढ़े, प्रियतम प्रणय पुराण 

लगे पिघलने थे तभी, संयम के पाषाण 

संयम के पाषाण, प्रेम की पढ़ी ऋचाएँ 

परमानन्दी स्वाद मूक क्या भला बताएँ 

कह भगवत कविराय, हृदय द्वय लगे धड़कने 

प्रियतम प्रणय पुराण, पढ़े थे मिलकर हमने


प्रणय संवाद


कानों में हैं गूंजते, प्रिये प्रणय संवाद 

रोम-रोम से उठ रहा, जैसे अनहद नाद 

जैसे अनहद नाद, झनकती थी पैंजनियां 

करती थी झंकार, प्रणय की पावन ध्वनियां 

कह भगवत कविराय, भीड़ या वीरानों में 

प्रिय तेरी आवाज, गूंजती है कानों में








चंचल चितवन


चंचल चितवन की चमक, होती थी द्युतिमान 

चन्द्रानन प्रिय आपका, मोहक आभावान 

मोहक आभावान, सुकोमल अंग तुम्हारे 

मुस्काने पर दांत, लगें मोती रतनारे 

कह भगवत कविराय, गगन सा नीला अंचल 

वशीकरण थी प्रिये, तुम्हारी चितवन चंचल


तुम्हारे अंग सुकोमल


कोमल अंगों की छुअन, वयः संधि का भार 

अधरों की लाली लगे, कुन्द कली कचनार 

कुंद कली कचनार, स्वर्ण सी दमके काया 

तुम्हें देखकर लगे, स्वर्ग ज्यों भू पर आया 

कह भगवत कविराय, चमकते नयन विचंचल 

मखमल से गुलगुले, तुम्हारे अंग सुकोमल


प्रिये तुम्हारी याद


तड़पाती मधुमास में, प्रिये तुम्हारी याद 

लगें गूंजने कान में, सब मधुरिम संवाद 

सब मधुरिम संवाद, प्रकृति पर बिखरी रोली 

सेमल टेसू खड़े, सजा फूलों की डोली 

कह भगवत कविराय, तुम्हारी छटा दिखाती 

पीली चूनर ओढ़, सरस सरसों तड़पाती








 बिना तुम्हारे


बिना तुम्हारे हे प्रिये, फीका है मधुमास 

चुभे तीर जैसे हमें, श्रृंगारी परिहास 

श्रृंगारी परिहास, वियोगी पीर बढ़ाते 

रहे तुम्हारा नाम, साँस में आते जाते 

कह भगवत कविराय, न भाते चाँद-सितारे 

मधुमासी उल्लास, सिसकता बिना तुम्हारे


 याद सताती


आ जाती है याद जब, वह सुहाग की रात 

थर-थर लगते काँपने, संयम के जलजात 

संयम के जलजात, याद आतीं सब बातें 

जाग-जागकर गई, बिताई थीं जो रातें 

कह भगवत कविराय, मिलन की याद सताती 

करती है बैचेन, याद अक्सर आ जाती


 याद आतीं सब बातें


बिना तुम्हारे था प्रिये, सारा जग प्रतिकूल 

साथ तुम्हारा जब मिला, हुए शूल भी फूल 

हुए शूल भी फूल, नहीं फिर कोई बाधा 

हुआ समय अनुकूल, मनोरथ विधि ने साधा 

कह भगवत कविराय, विफल थे उपक्रम 

सारे हर मौसम प्रतिकूल रहे, प्रिय बिना तुम्हारे


 आँसू की टकसाल


बिना तुम्हारे हे प्रिये, है मेरा यह हाल 

नयन वियोगी हो गये, आँसू की टकसाल

आँसू की टकसाल, टपकते आँसू ढलकर 

इनसे मन की पीर, निकलती रोज पिघलकर 

कह भगवत कविराय, यही धन पास हमारे 

झर-झर करते अश्रु, याद में बिना तुम्हारे


14. आँसू का इतिहास


कितना है प्राचीन यह, आँसू का इतिहास 

कब से सुनते आ रहे, हम चातक की प्यास 

हम चातक की प्यास, कभी सीता थी रोयी 

प्रिय के बिना उदास, जागती रही न सोयी 

कह भगवत कविराय, इन्हें रोकोगे जितना 

आँसू रुकते नहीं, जतन कर लो तुम कितना


 गम के आँसू


गम के आँसू आँख में, स्वयं छिपाना सीख 

यहाँ सान्त्वना की सदा, दी जाती है भीख 

दी जाती है भीख, मिले जो उपहासों में 

कर लो हदय कठोर, जियो इन संत्रासो में 

कह भगवत कविराय, अश्रु मोती से दमके 

रक्खो इन्हें सम्हाल, आँख में आँसू गम के


 अश्रु की होती वाणी


झरते मिलन-विछोह में, अथवा हो अपमान 

बिन बोले आँसू करें, पीड़ा, खुशी बखान 

पीड़ा,खुशी बखान, अश्रु की होती वाणी 

आँसू की आवाज सुना करते हैं ज्ञानी 

कह भगवत कविराय, विवश ये हमको करते 

खुशियों में भी, अश्रु आँख से झर-झर झरते


 मातु शारदे


मातु शारदे आपका, मिला जिन्हें आशीष 

उनका सुधी समाज में, रहा समुन्नत शीश 

रहा समुन्नत शीश, ज्ञान, विद्या, बल दायिनि 

वीणा वादिनि आप, कला संगीत प्रदायिनि 

कह भगवत कविराय, स्वरों की बहा धार दे 

हंसवाहिनी नमन, आपको मातु शारदे


 वृन्दावन


वृन्दावन प्यारा लगे, सघन जहाँ के कुंज 

सुमनों के प्रफुलित रहें, रंग-बिरंगे पुंज 

रंग-बिरंगे पुंज, जहाँ अलिगण मँडराते 

राधा के संग जहाँ, कन्हैया रास रचाते 

कह भगवत कविराय, झूमता गोकुल सारा 

गौओं को भी लगे, सुखद वृन्दावन प्यारा








 ईश्वर पर विश्वास


जिनने ईश्वर पर रखा, विपदा में विश्वास 

मिला उन्हीं को देखने, खुशियों का मधुमास 

खुशियों का मधुमास, धैर्य का साथ न छोड़ा 

अपने मन का अश्व, भक्ति के पथ पर मोडा

कह भगवत कविराय, तजे हैं संशय उनने 

अनुभव पल-पल प्राप्त, किये ईश्वर के जिनने


 तुलसी


तुलसी के हिय में चुभे, तीक्ष्ण व्यंग्य के बाण 

मानस में मुखरित हुए, करने जग कल्याण 

करने जग कल्याण, राम में लगन लगाई 

रामायण में रचे, छन्द, दोहा, चौपाई 

कह भगवत कविराय, धन्य वह माता हुलसी 

सिया राम का भक्त, कोख से जाया तुलसी


 गजानन


महाराष्ट्र के गाँव से, बही भक्ति की धार 

प्रगट गजानन प्रभु हुए, ईश्वर के अवतार 

ईश्वर के अवतार, चमत्कारी थे स्वामी 

करें कामनापूर्ण सभी की, अंतर्यामी 

कह भगवत कविराय, पूज्य संपूर्ण राष्ट्र के 

ईश्वर के अवतार, गजानन महाराष्ट्र के








 गजानन


हुए गजानन अवतरित, धन्य हुआ शेगाँव 

तीर्थ बनी, पावन धरा, पड़े संत के पाँव 

पड़े संत के पाँव, चिलम से आग झराई 

धू-धू जलती खाट, आप बैठे थे साईं 

कह भगवत कविराय, स्वयं थे विट्ठल भगवन 

करने जन-कल्याण, प्रगट प्रभु हुए गजानन



 गजानन


एक लँगोटी के सिवा, तन था वस्त्र विहीन 

राख लपेटे देह पर, जिन्हें परमप्रिय दीन 

जिन्हें परमप्रिय दीन, कृपानिधि संत गजानन 

जन्मस्थल है तीर्थ, आज शेगाँव सुपावन 

कह भगवत कविराय, शीश पर लम्बी चोटी 

सबको दें धन धान्य, स्वयं को एक लँगोटी


 गजानन


निकट अकोला शहर से, जाते हैं शेगाँव 

स्टेशन है यह रेल का, वहीं गजानन-ठाँव 

वहीं गजानन-ठाँव, जिला जिसका बुल्ढाना 

महाराष्ट्र में तीर्थ बना यह जाना-माना 

कह भगवत कविराय, विपति में जब मन डोला 

पहुँच गये शेगाँव, बसा जो निकट अकोला


 वर्ष यह मंगलमय हो


मंगलमय हो आपको, यह हिन्दू नव वर्ष 

होवे भारत की नवल, प्रतिभा का उत्कर्ष 

प्रतिभा का उत्कर्ष, बढ़ें भौतिक संसाधन 

संयम से ही रहे, तुष्टिकारक अनुशासन 

कह भगवत कविराय, धवल धन का संचय हो 

बढ़े राष्ट्र का मान, वर्ष यह मंगलमय हो


 बधाई नये वर्ष की


नये वर्ष की हार्दिक, लें खुशियाँ स्वीकार 

झरे आपके द्वार पर, सुख के हरसिंगार 

सुख के हरसिंगार, वर्ष यह मंगलगमय हो 

हो असत्य की हार, सत्य की सदा विजय हो 

कह भगवत कविराय, बात है सुखद, हर्ष की 

लें मित्रों के सहित, बधाई नये वर्ष की


 कुण्डलियां


कुण्डलियां की पंक्ति छै, पहले दोहा एक 

फिर दो रोला, चार पद, रखें सुकवि सविवेक 

रखें सुकवि सविवेक, चरण चौथा दोहे का 

रोला का प्रारम्भ, उसी से मन मोहेगा 

कह भगवत कविराय, मात्रिक चौबीस फलियां 

तभी छन्द में कसे, रुचिर सार्थक कुण्डलियां








 रची रोचक कुण्डलियाँ


कुण्डलियां, साहित्य में, देती हैं आनन्द 

गिरधर कवि का यह रहा, सरस परमप्रिय छन्द 

सरस परमप्रिय छन्द, काव्य से नाम कमाया 

भर कविता के कलश, काव्य रस है छलकाया 

कह भगवत कविराय, काव्य की कुसुमित कलियां 

चुन शब्दों के सुमन, रची रोचक कुण्डलियां


 सद्ग्रन्थ


सद्ग्रन्थों में है भरा, इस जीवन का सार 

करें पठन-पाठन, मनन, मिले ज्ञान को धार 

मिले ज्ञान को धार, खंगालें उज्जवल मोती 

मिटता है अज्ञान, ज्ञान की मिलती ज्योती 

कह भगवत कविराय, न भटकें हम पंथों में 

मिल जाएगा मार्ग, हमें इन सद्ग्रन्थों में


 कविता


कविता, कौशल शिल्प का, सघन छन्द विन्यास 

लघु कर दे विस्तार को, रुचिकर ललित समास 

रुचिकर ललित समास, काल्पनिक सृष्टि अनूठी 

हो यदि रूप बखान, प्रियतमा माने रूठी 

कह भगवत कविराय, काल्पनिक तारे, सविता 

कहीं युक्ति वैचित्र्य, सफल युगबोधी कविता






 कविताओं की रेल


छन्दों की अठखेलियां, हों शब्दों के खेल 

बलाघात करती चले, कविताओं की रेल 

कविताओं की रेल, प्रवाहित हो रस सरिता 

अलंकार से रहे, सुशोभित हिन्दी कविता 

कह भगवत कविराय, सुमति, गति, लयबन्धों की 

लोक मांगलिक रहे, सुकविता गण-छन्दों की


 पढ़ना-लिरवना


पढ़ना-लिखना सोचना, चिन्तन मनन विचार 

ये हैं मानव जाति के, उन्नति के आधार 

उन्नति के आधार, ज्ञान का पथ संघानें 

जो हैं अनपढ़ मूढ़, बड़ों की बात न मानें 

कह भगवत कविराय, चाहिए अंतर दिखना 

बहुत जरूरी अतः, मनुज का पढ़ना-लिखना


 कविता


कविता है अंतव्यथा, जन जन का अहसास 

कही लोक संत्रास है, और कहीं मधुमास

और कहीं मधुमास, चित्र पूरे जीवन के 

तनिक काल्पनिक दृश्य, सत्य युगबोध भुवन के 

कह भगवत कविराय, प्रकृति, विधु, तारक ,सविता 

दे प्रेरक संदेश, वही हितकारी कविता






कृतियों की आलोचना


कृतियों की आलोचना, करिये सोच-विचार 

हृदय विदारक मत करो, कभी शब्द की मार 

कभी शब्द की मार, करें निर्णय विवेक से 

रचनाधर्मी कभी न होते सभी एक से 

कह भगवत कविराय, सरसता सम्मतियों की 

नीर-क्षीर सी रहें, समीक्षाएँ कृतियों की


छन्दों से कटने लगी


छन्दों से कटने लगी, तरुणाई की पौध 

प्रेत लगें केशव इन्हें, औ’ पागल हरिऔध

औ’ पागल हरिऔध, नहीं भाती प्रांजलता 

लिखकर नीरस गद्य, काव्य की कहें सफलता 

कह भगवत कविराय, बँधे जो छल-छन्दों से 

उनको क्या रस मिले, अलंकारों-छन्दों से


 द्वयअर्थी अश्लील


कविता करें मजाकिये, नाटक चुहुल प्रपंच 

वही मदारी लूटते, कविताओं के मंच 

कविताओं के मंच, सुनाते भद्दी गाली 

साथ कवित्री रहे, बनें ये जीजा साली 

कह भगवत कविराय, इन्हें फल रही अकविता 

द्वयअर्थी अश्लील, पढ़ी जाती है कविता








 सरस, रूप, रस, गंध


कविता वो जिसमें रहे, सरस, रूप, रस, गंध 

अगर नहीं तो व्यर्थ है, नीरस काव्य प्रबंध 

नीरस काव्य-प्रबंध, पढ़ें तो लगे उबाई 

हो जिसमें लालित्य, वही रुचिकर कविताई 

कह भगवत कविराय, छन्दमय रहे सुललिता 

उद्घाटित जो करे सत्य को, वह है कविता


 मानस की चौपाइयाँ


मानस की चौपाइयां, एक-एक हैं मंत्र 

जिनको पढ़कर हो सफल, अपना जीवनतंत्र 

अपना जीवन तंत्र, लक्ष्य कविता संधाने 

राम नाम अनमोल, अपढ़ शबरी तक जाने 

कह भगवत कविराय, प्रेरणा जनमानस की 

चौपाई प्रत्येक, मंत्र सी है मानस की


 कविताओं के मंच


जिनको आती मसखरी, नाटक, चुहुल प्रपंच 

वही मदारी लूटते, कविताओं के मंच 

कविताओं के मंच, जहाँ साहित्य उखड़ता 

बेशर्मी से, पेश जहाँ होती फूहड़ता 

कह भगवत कविराय, दोष हम देवें किनको 

श्रोता जिम्मेदार, सुना करते हैं जिनको








 कविता में संस्कार


मानवता सौहार्द के, रहें उच्च सुविचार 

राष्ट्रभक्ति के चाहिए, कविता में संस्कार 

कविता में संस्कार, प्रेम सद्भाव जगाये 

जो जीवन के लिए, उचित कर्तव्य सिखाये 

कह भगवत कविराय, बढ़ी है जो दानवता 

करे दनुजता दमन, बढ़े आगे मानवता


 छपवायें पुस्तक अगर


छपवायें पुस्तक अगर, कर लें खूब विचार 

पूर्ण व्यवस्थित पाण्डुलिपि, कर लेवें तैयार 

कर लेवें तैयार, बना लें अनुक्रम पूरा 

आमुख, अपनी बात, न छोड़ो काम अधूरा 

कह भगवत कविराय, स्वयं कम्पोज करायें 

ठहराकर हर बात, प्रकाशक से छपवायें


 विद्वान


तजते धीरज हैं नहीं, विपदा में विद्वान 

ग्रहण-छंटे फिर सूर्य-शशि, होते आभावान 

होते आभावान, साहसी, हार न मानें 

विद्वानों के सुयश, हमारे ग्रन्थ बखाने 

कह भगवत कविराय, गुणीजन प्रभु को भजते 

सद्गुण करते ग्रहण, साधुजन दुर्गुण तजते









 सज्जनताई


चंदन को काटा, हुआ खुशबूदार कुठार 

करें शत्रु के साथ भी, सज्जनजन उपकार 

सज्जन जन उपकार, सभी की करें भलाई 

इसीलिए है पूज्य, जगत में सज्जनताई 

कह भगवत कविराय, उन्हीं का अर्चन-वन्दन 

जो दें ज्ञान सुगंध, कि ज्यों मलयानिल चंदन


 आशा का दिनमान


होता कभी न अस्त यह, आशा का दिनमान 

पंछी करते हैं सुबह, फिर-फिर मंगलगान 

फिर-फिर मंगलगान, एक सा समय न रहता 

करे सफलता प्राप्त, उद्यमी जो दुख सहता 

कह भगवत कविराय, मूढ़ किस्मत पर रोता 

कर्मठ उद्यमशील, कभी भी विफल न होता


 उत्साही


उत्साही होते नहीं, विपदा देख हताश 

सूख-सूख पत्ते उड़ें, छूने को आकाश 

छूने को आकाश, न विपदा से घबराते 

भर उमंग-उत्साह, प्रगति की राह बनाते 

कह भगवत कविराय, कठिन पथ के ये राही 

मुश्किल को आसान, किया करते उत्साही







 अभिनन्दन है आपका


अभिनन्दन है आपका, सविनय बारम्बार 

कीर्ति बखाने आपकी, सारस्वत संसार 

सारस्वत संसार, ज्ञान की ज्योति जलाई 

सुनते चारों ओर, आपकी कीर्ति बड़ाई 

कह भगवत कविराय, भेंट क्या करें अकिंचन 

गौरवशाली हुए आज हम कर अभिनंदन


47. हिन्दी भाषा


हिन्दी भाषा को अगर, मिला नहीं सम्मान 

तो स्वतंत्र कैसे कहें, है यह हिन्दुस्तान 

है यह हिन्दुस्तान, लदी जिस पर अंग्रेजी 

पहली कक्षा तुच्छ, मानमंडित है के.जी. 

कह भगवत कविराय, गर्व हो अभिलाषा को 

मिले पूर्ण अधिकार, अगर हिन्दी भाषा को


48. हिन्दी


हिन्दी भाषा है सरल, संप्रेषण आसान 

किन्तु इसे क्यों आज तक, मिला नहीं सम्मान

मिला नहीं सम्मान, चले इंग्लिश का शासन 

उदासीन ही रहा, आज तक पंगु प्रशासन 

कह भगवत कविराय, पूर्ण होगी क्या आशा 

या कि उपेक्षित सदा रहेगी हिन्दी भाषा








 हिन्दी दिवस


आता है हिन्दी दिवस, एक वर्ष के बाद 

हिन्दी की समृद्धि की, तब आती है याद 

तब आती है याद, राष्ट्रभाषा हिन्दी की 

उपमायें दी गई जिसे, मणि की, बिन्दी की 

कह भगवत कविराय, विवश शासन मनवाता 

पर इसका आदेश, सदा इंग्लिश में आता


 हिन्दी


हिन्दी भाषा में भरा, संस्कृति का मकरंद 

श्रद्धा से उसमें रचें, राष्ट्रभक्ति के छंद 

राष्ट्रभक्ति के छंद, गर्व से बोलें हिन्दी 

कन्नड़, उड़िया, तमिल, सीख लें बँगला, सिन्धी 

कह भगवत कविराय, बढ़ें हम प्रत्याशा में 

होवें सारे काम, अगर हिन्दी भाषा में


 हिन्दी


माता जैसा है जिन्हें, मातृभूमि से प्यार 

उड़िया, कन्नड़, तमिल सब लें हिन्दी स्वीकार 

लें हिन्दी स्वीकार, राष्ट्रहित प्रथम विचारें 

छोड़ दुराग्रह इसे, राष्ट्रभाषा स्वीकारें 

कह भगवत कविराय, सभी का इससे नाता 

हिन्दी से ही करे, समुन्नति भारत माता








 हिन्दी


आश्रित हम सरकार पर, रहें न हिन्दी हेतु 

हमको ही संपर्क के, गढ़ना होंगे सेतु 

गढ़ना होंगे सेतु, करें मन में दृढ़ निश्चय 

लेकर बढ़े मशाल, बोलकर हिन्दी की जय 

कह भगवत कविराय, कहाँ तक रहें पराश्रित 

हम खुद करें विकास, किसी के रहें न आश्रित


 हिन्दी


इंग्लिश के अल्पज्ञ वे, करते फिरें गुमान 

हिन्दी भाषा का वही, करते हैं अपमान 

करते हैं अपमान, जो कि हिन्दी की खाते 

आडम्बर में मूढ़, सुयश इंग्लिश का गाते

कह भगवत कविराय, करें मक्खन पालिश वे 

चाटुकर गुणगान, किया करते इंग्लिश के


 हिन्दी


आजादी का जब किया, हिन्दी ने आह्वान 

आया भारत देश में, तब स्वातंत्र्य विहान 

तब स्वातंत्र्य विहान, गढ़े हिन्दी के नारे 

हिन्दू मुस्लिम सिक्ख, संगठित होकर सारे 

कह भगवत कविराय, इरादे थे फौलादी 

ले हिन्दी के शस्त्र, दिलाई थी आजादी








 हिन्दी


फ्रेन्च, चायनी, जर्मनी, रसियन भाषी देश 

निज भाषा में कामकर, उन्नत हुए विशेष 

उन्नत हुए विशेष, सुदृढ़ टर्की का शासक 

टर्किश को सम्मान दिलाने, जुटे प्रशासक 

कह भगवत कविराय, स्वदेशी सुफल दायिनी 

हिन्दी फूले-फले कि जैसे, फ्रेन्च चायनी


 हिन्दी


जब स्वतंत्र टर्की हुआ, किया न तनिक विलम्ब 

टर्किश भाषा में किया, राज काज अविलम्ब 

राजकाज अविलम्ब, यहाँ यदि ऐसा होता 

तो क्या हिन्दुस्तान, राष्ट्रभाषा हित रोता 

कह भगवत कविराय, बखेड़ा मिट जाता तब

हिन्दी को स्वीकार देश कर लेता यदि जब


 हिन्दी


मीरा मेवाड़ी तथा राजस्थानी सूर 

अवधी बोली के गये, हिन्दी सूक्त सुदूर 

हिन्दी सूक्त सुदूर, भजन हिन्दी में गाये 

हमने शुभ संदेश इसी हिन्दी में पाये 

कह भगवत कविराय, बढ़े हिन्दी की गाड़ी 

जैसे ब्रज के सूर, पुजी भक्तिन मेवाड़ी








 हिन्दी


सुंदरता है प्रकृति की, नारी का श्रृंगार 

हिन्दी में आर्यत्व का, सांस्कृतिक आधार 

सांस्कृतिक आधार, समूचा वैदिक दर्शन 

है इंग्लिश में भरा, पश्चिमी नग्न प्रदर्शन 

कह भगवत कविराय, काव्य की शब्द प्रखरता 

मर्यादित लालित्य, सुकोमलता सुन्दरता


 कम्प्यूटर विज्ञान


विद्वत जन विकसित करें कम्प्यूटर विज्ञान 

तब ही संभव हो सके, हिन्दी का उत्थान 

हिन्दी का उत्थान करें स्वीकार चुनौती 

अंग्रेजी की नहीं चलेगी यहाँ बपौती 

कह भगवत कविराय, झोंक दें अपना तन-मन 

कम्प्यूटर के योग्य रचें हिन्दी विद्वत जन


 ज्ञानी


ज्ञानी जन करते सदा, औरों का सम्मान 

इसीलिए होता यहाँ, ज्ञानी का गुणगान 

ज्ञानी का गुणगान, तभी हो भाईचारा 

अहंकार अज्ञान, सदा ज्ञानी से हारा 

कह भगवत कविराय, मूढ़ होते अज्ञानी 

सद्गुण से सम्पन्न, रहा करते हैं ज्ञानी








 पावन भारत देश


वसुन्धरा की गोद में, पावन भारत देश 

जहाँ रमापति के सहित, रमते उमा-महेश 

रमते उमा-महेश, स्वर्ग से नदियां आती 

पीकर अमृत वारि, विपुल फसलें लहरातीं 

कह भगवत कविराय, ख्याति है परंपरा की 

करें तपस्वी भूप, अर्चना वसुन्धरा की


 सूर्यवंश


सूर्यवंश के नृपति सब, हुए से एक से एक 

जन-मन-रंजन के लिए, जिनके विमल विवेक 

जिनके विमल विवेक, यशस्वी थे बलिदानी 

शिवि, दधीचि, हरिचन्द्र, शौर्य की रची कहानी 

कह भगवत कविराय, न्याय जल क्षीर हंस के 

यश के ध्वज सर्वत्र उड़े हैं सूर्यवंश के


 आजादी


आजादी का तब मिला, यह अमूल्य उपहार 

वीरों ने जब धर दिये, अपने शीश उतार 

अपने शीश उतार, वतन पर दी कुर्बानी 

आजादी के लिए, मरे लाखों बलिदानी 

कह भगवत कविराय, जिगर जिनके फौलादी 

उन वीरों ने हमें, दिलाई थी आजादी








 आथर्वण


आथर्वण मुनि तपनिरत, करें सदा उपकार 

आर्तप्राणियों के लिए, मरने को तैयार 

मरने को तैयार, दुखी जो भी जन आवें 

करते उन्हें प्रसन्न, निराशा कठिन दुरावें 

कह भगवत कविराय, किया सर्वस्व समर्पण 

ऐसे विश्व प्रसिद्ध, राजऋषि थे आथर्वण


 दधीचि


दानी हुए दधीचि नृप, गहन तपस्या लीन 

दानवीरता की कथा, अमर हुई प्राचीन 

अमर हुई प्राचीन, अस्थियां दे दी तन की 

व्रत्रासुर के नाश, हेतु बलि दी जीवन की 

कह भगवत कविराय, सूर्यवंशी नृप ज्ञानी 

हुआ न कोई और, दूसरा इन सा दानी


 राम-कृष्ण भगवान


भारत की श्री राम से, बनी विश्व पहचान 

सत्कर्मों से थे बने, राम-कृष्ण भगवान

राम-कृष्ण भगवान, दुष्ट दानव संहारे 

बानर, मनुज, किरात, सभी के बने सहारे 

कह भगवत कविराय, नीति थी परमारथ की 

ईश्वर को भी रही, भूमि प्रिय यह भारत की










 राष्ट्रहित दी कुर्बानी


किये निछावर राष्ट्र पर, घर-परिवार समस्त 

राष्ट्रभक्ति का था नशा, वे थे वतन परस्त 

वे थे वतन परस्त, राष्ट्रहित दी कुर्बानी 

बलिवेदी पर हवन, हुई उद्दाम जवानी 

कह भगवत कविराय, वीर निर्भय कद्दावर 

हँसते-हँसते प्राण, वतन पर किये निछावर


 राष्ट्रभक्ति की आग


जिनके सीने में रही, राष्ट्रभक्ति की आग 

सत्ता पाकर भी रहे, वे चरित्र बेदाग 

वे चरित्र बेदाग, कि जैसे बल्लभभाई 

लाल बहादुर और अटल, जैसी दृढ़ताई 

कह भगवत कविराय, कर्ज हम पर हैं उनके 

भारत करता गर्व, आज बूते पर जिनके


 भूले हम कुर्बानियां


भूले हम कुर्बानियां, आजादी के बाद 

आज शहीदों को नहीं, मन से करते याद 

मन से करते याद, दिलाई थी आजादी 

बलिपथ पर जो गये, इरादे थे फौलादी

कह भगवत कविराय, वीर फाँसी पर झूले 

जिनने किया स्वतंत्र, आज क्यों उनको भूले






 न उनके गौरव गाये


कुर्बानी का कोर्स में, नहीं रखा है पाठ 

राष्ट्रभक्ति से बालमन, भरता अतः उचाट 

भरता अतः उचाट, नहीं वे पाठ-पढ़ाये 

जो थे वीर सपूत, न उनके गौरव गाये 

कह भगवत कविराय, विमुख यदि हुई जवानी 

मातृभूमि पर भला, कौन देगा कुर्बानी


71. शेरों वाली लाट


जिसके आगे झुक गया, दंभी ब्रिटिश-ललाट 

है अशोक की शांति प्रिय, शेरों वाली लाट 

शेरों वाली लाट, बुद्ध के बन अनुयायी 

रोके हिंसा युद्ध, हृदय में करुणा छायी 

कह भगवत कविराय, शांति से, डरकर भागे 

बड़े-बड़े जल्लाद, न ठहरे जिसके आगे


 भूल गये कर्तव्य


मान प्रतिष्ठा पद मिला, भूल गये कर्तव्य 

उज्ज्वल फिर कैसे भला, होवेगा भवितव्य 

होवेगा भवितव्य, न उलझो अधिकारों में 

अहंकार से पड़े दरारें, दीवारों में 

कह भगवत कविराय, कर्म में होवे निष्ठा 

तभी सुरक्षित रहे, आपकी मान प्रतिष्ठा








 भूचालों को बाँध लो


भूचालों को बाँध लो, कसो सुदृढ़ भुजपाश 

नापो दृढ़ संकल्प ले, तुम धरती-आकाश 

तुम धरती आकाश, कसो अब भुजदंडों को 

पिघला सकते तुम्हीं साँस से हिमखंडों को 

कह भगवत कविराय, कुचल दो विष व्यालों को 

कर लो दृढ़ संकल्प, बाँध लो भूचालों को


 गाँव, खेत, रवलिहान


मेरे मन में हैं बसे, गाँव खेत-खलिहान 

खेतों में हरियालियां, बोते जहाँ किसान 

बोते जहाँ किसान, जहाँ शीतल अमराई 

करते हँसी-मजाक, नन्द, देवर, भौजाई 

कह भगवत कविराय, सुदृढ़ संबन्ध घनेरे 

इसीलिए तो गाँव, बसे हैं दिल में मेरे


फिर सिन्दूरी छटा


बाँह छुड़ाकर सूर्य से, हरी चुनरिया खींच 

क्रुद्ध लाल ऊषा हुई, खड़ी उदयगिरि बीच 

खड़ी उदयगिरि बीच, पड़ी भू पर परछाई 

फिर सिन्दूरी छटा, तनिक पूरब पर छाई 

कह भगवत कविराय, मनाने चला दिवाकर 

आगे-आगे चली, उषा जब बाँह छुड़ाकर








 रिश्ते खुशबूदार


गौवों में हैं आज भी, रिश्ते खूशबूदार 

यही गांव हैं देश की, संस्कृति के आधार 

संस्कृति के आधार, जहाँ है भाईचारा 

मर्यादा की अभी, नहीं सूखी है धारा 

कह भगवत कविराय, साथ दें विपदाओं में 

सामाजिक सद्भाव, सुरक्षित हैं गाँवों में


 गाँवों में आनन्द


सावन, फागुन में रहे, गाँवों में आनन्द 

गावें कजरी दादरे, जस, चौकड़िया छन्द 

जस चौकड़िया छन्द, थाप मादल, मृदंग की 

कर देती उन्मत, शिरायें अंग-अंग की 

कह भगवत कविराय, लगें मोहक मन-भावन 

भारत के त्यौहार, फाग, दीवाली, सावन


 भारतीय पोशाक


कुर्ता-धोती बासकिट और अँगरखा संग 

भारतीय पोशाक से, जचें हमारे अंग 

जचें हमारे अंग, स्वदेशी है पहनावा 

लेकिन टाई सूट, लगे अफसरी दिखावा 

कह भगवत कविराय, न लगते हीरे-मोती 

भारतीय परिधान, पहनिये कुर्ता-धोती








 धरती


धरती माता की तरह, हम इसकी संतान 

हमें बढ़ाना चाहिए, मातृभूमि का मान 

मातृभूमि का मान, पूज्य है धरा हमारी 

दे जलवायु, अनाज, पुत्रवत पालनहारी 

कह भगवत कविराय, हमारा पालन करती 

प्राणों से भी अधिक, हमें प्रिय माता धरती


 यह प्रकाश का पर्व


रौशन दीपों से, तिमिर हो जाता है दूर 

बिजली के लटू जलें, ज्यों सगुच्छ अंगूर 

ज्यों सगुच्छ अंगूर, जला करते हैं जगमग 

है प्रकाश का पर्व, नहा जाता सारा जग 

कह भगवत कविराय, लगें उजले घर आंगन 

कर देते हैं दीप, अमावश को भी रौशन


 सिन्दूरी सेमल हुए


सिन्दूरी सेमल हुए, रक्तिम हुए पलाश 

कलियों ने तुड़वा दिये, भँवरों के उपवास 

भौरों के उपवास, भरी परिमल की प्याली 

पिला रहीं मकरंद, रची अधरों पर लाली 

कह भगवत कविराय, अंग उभरे अंगूरी 

ऋतुपति ने कर दिया, प्रकृति का तन सिन्दूरी








 जोवन भरें उमंग


गीले तन, चिपके बसन, हुई कंचुकी तंग 

सखियां भीगीं रंग में, जोवन भरें उमंग 

जोवन भरें उमंग, न अँगिया बीच समायें 

सम्मर्दन से और, उभरकर आगे आयें 

कह भगवत कविराय, नयन भी हुए नशीले 

मदन गंध से हुए, सुवासित तन-मन गीले


 रंगों के तम्बू तने


रंगों के तम्बू तने, चले चैतुआ मीत 

गूँज रहे खलिहान में, लोकधुनों के गीत 

लोकधुनों के गीत, हुई ललनाएँ चंचल 

पीले, नीले, लाल, गुलाबी उड़ते अंचल 

कह भगवत कविराय, प्रदर्शन हों अंगों के 

ध्वज लहराने लगे, वनों में नव रंगों के


 बौराई अमराइयां


बौराई अमराइयां, खिले चतुर्दिक फूल 

गगन चूमने को चली, उड़ी धरा की धूल 

उड़ी धरा की धूल, सुगंधित मलय पवन है 

सेमल, टेसू लाल, प्रकृति उत्फुल्ल मगन है 

कह भगवत कविराय, पीत सरसों लहराई 

छेड़े पंचम राग, फिरे कोयल बौराई








 फूलों के ताबीज


नजर लगाता हर पथिक, प्रकृति छटा पर रीझ 

पहिन लताओं ने लिए, फूलों के ताबीज 

फूलों के ताबीज, खिली मोहक फुलवारी 

परिमल से रसवंत, हुई कलियां सुकुमारी 

कह भगवत कविराय, पथिक जो आता जाता 

यौवनवंती देख, प्रकृति को नजर लगाता


 वासंती छवि-छटा


सेमल टेसू आ गये, लेकर रंग-गुलाल 

पूरी वसुधा के हुए, अंग गुलाबी लाल 

अंग गुलाबी लाल, प्रकृति का यौवन निखरा 

खिले करोड़ों सुमन, रंग सतवर्णी बिखरा 

कह भगवत कविराय, झूमते हैं पादप दल 

वासंती छवि-छटा, बिखेरे टेसू, सेमल


 पीला रंग बसंत का


पीला रंग बसंत का, पावन पुण्य प्रतीक 

सरस्वती को पूजते, यही पुरातन लीक 

यही पुरातन लीक, पहिनते कपड़े पीले

कामदेव से लगें, युवक ये स्वस्थ गठीले 

कह भगवत कविराय, मदन है बड़ा हठीला 

क्वांरी अर्चन करें, पहिनकर कपड़ा पीला








88. खिले हैं टेसू-सेमल


टेसू-सेमल, गुलमुहर, खिले लिली कचनार 

बौरे आप बसंत में, सुरभित बहे बयार 

सुरभित बहे बयार, महकती दसों दिशाएँ 

आलिंगन कर रहीं, विटप के संग लताएँ 

कह भगवत कविराय, झूमकर गाये कोयल 

लाल-लाल चहुँ ओर, खिले हैं टेसू-सेमल


 आये दिवस बसंत के


आये दिवस बसंत के, प्रफुलित दिशा-दिगंत 

दिखे इन्द्रधनुषी छटा, सुषमा अमित अनंत 

सुषमा अमित अनंत, चतर्दिक सुमन खिले हैं 

फिर मनमोहक दृश्य, देखने हमें मिले हैं

कह भगवत कविराय, पिकी ने मंगल गाये 

सज धज कर ऋतुराज, प्रकृति से मिलने आये


 होली


होली के दिन आ गये, मन में उठे तरंग 

सुन मृदंग की थाप को, भरें कुलांच कुरंग 

भरें कुलांच कुरंग, प्रफुल्लित धरती सारी 

सुन कोकिल की कूक, झूमते हैं नर-नारी 

कह भगवत कविराय, बंध गड़ते चोली के 

पिया मिलन की आस, जगाते दिन होली के








 लिरवी ईसुरी फाग


बुन्देली के लोक कवि, लिखी ईसुरी फाग 

चौकड़ियों से रच गये, श्रृंगारी अनुराग 

श्रृंगारी अनुराग, पक्ष सारे जीवन के 

ईसुर ने लिख दिये, भाव जीवन दर्शन के 

कह भगवत कविराय, खबासन, धोबन, तेली 

ब्राह्मन, ठाकुर, सभी बोलते हैं बुन्देली


 ऋतुराज


अमराई में आ गया, सजधजकर ऋतुराज 

कोकिल, भँवरे, सारिका, झूमे सकल समाज 

झूमे सकल समाज, पुष्प हैं भाँति-भाँति के 

पक्षी कलरव करें, कई दुर्लभ प्रजाति के 

कह भगवत कविराय, सुरभि है पुरवाई में 

कोकिल छेड़े तान, झूमकर अमराई में


 फागुन में ऋतुराज


बौराया है देख लो, फागुन में ऋतुराज 

सज-धज आया बाग में, लेकर स्वजन समाज 

लेकर स्वजन समाज, मित्र मलयानिल आया 

सखी कोकिला मस्त कि जिसने गीत सुनाया

कह भगवत कविराय, चतुर्दिक उत्सव छाया 

प्रकृति-छटा को देख, मदन फिरता बौराया








 गुलदस्ते


गुलदस्ते में हों सजे, रंग-बिरंगे फूल 

सुमन सुशोभित हों जहाँ, मौसम के अनुकूल 

मौसम के अनुकूल, पुष्प तो सबको भायें 

देने को उपहार, एक गुलदस्ता लायें 

कह भगवत कविराय न देखो महँगे, सस्ते 

आकर्षक जो लगें, भेंट में दो गुलदस्ते


 गंगा


जिसका सुयश बखानते, सुर मुनि बारम्बार 

पतित पावनी है नदी, गंगा तारनहार 

गंगा तारनहार, भगीरथ इसको लाये 

अपने पुरखे तार, स्वर्ग सारे पहुँचाये 

कह भगवत कविराय, हुआ दूषित जल इसका 

औषधीय गुणयुक्त, रहा पावन जल जिसका


 गंगा


धोकर पद नख विष्णु के, चली गंग की धार 

ब्रह्म कमंडल से पुनः विधि ने दिया उतार 

विधि ने दिया उतार, वेग रोका शंकर ने 

छोड़ी पतली धार, धरा पर प्रलयंकर ने 

कह भगवत कविराय, कई राज्यों से होकर 

गंगा सागर गई, कई के पातक धोकर








 गंगा


हिमगिरि से गंगा चली, पर्वत घाटी, लाँघ 

उछल-उछल बढ़ने लगी, लम्बी लगा छलाँग 

लम्बी लगा छलाँग, उतर समतल पर आई 

भरे अन्न भंडार, जहाँ हो रही सिंचाई

कह भगवत कविराय, सफाई हो अब फिर से 

सागर तक अभियान, शुरू होवे हिमगिरि से


गंगा जल


गंगाजल अनमोल है, औषधियों से युक्त 

प्राणदायिनी मातु को, करें प्रदूषण-मुक्त 

करें प्रदूषण-मुक्त, स्वच्छ हों सारी नदियाँ 

भोग रहीं जो आज, प्रदूषण की त्रासदियाँ 

कह भगवत कविराय, जुटे सारा इच्छाबल 

पहले जैसा साफ, मिले हमको गंगाजल


सुरसरि


हैं सुरसरि के तीर पर, शीशम, चीड़, चिनार 

प्रभु ने धरती पर धरी, अमरावती उतार 

अमरावती उतार, हुई फिर चौड़ी धारा 

गंगा तट पर दिखे, प्रकृति का वैभव सारा 

कह भगवत कविराय, रूप बिगड़े सर-सरि के 

करें गंदगी-मुक्त, घाट जो हैं सुरसरि के








नर्मदा


दर्शन से माँ नर्मदा, दे भवसागर तार 

कई जन्म के पाप यह, कर देती है क्षार 

कर देती है क्षार, नर्मदा बहती क्वांरी 

यह मेकल की सुता, शंभु की राजदुलारी 

कह भगवत कविराय, सुमर लो अंतर्मन से 

मिलें चार पुरुषार्थ, नर्मदा के दर्शन से

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