भूखे भील गए- आचार्य भगवत दुबे
भूखे भील गये
न्याय मांगने, गाँव हमारे
जब तहसील गये
न्यायालय,
खलिहान, खेत, घर
गहने लील गये
लिया कर्ज
कुटकी, कोदों की
फसल गई बोई
फलीभूत आशा के होते
लगा रोग कोई
सांड तकादों के
लठैत खेतों में ढील गये
गिरवी रखा अँगूठा
करने बेटी का गौना
छोड़ पढ़ाई
हरवाही करने
निकला छौना
चिन्ताओं के बोझ
सुकोमल काँधे छील गये
कभी न छँट पाया
जीवन से विपदा का कुहरा
राजनीति का इन्हें
बनाया गया सदा मुहरा
दिल्ली लोककला दिखलाने
भूखे-भील गये
000
पपड़ाये हैं अधर नदी के
पपड़ाये हैं अधर नदी के
है व्याकुल प्यासी
जर्जर जीर्ण-शीर्ण दिखते हैं
झील, सरोवर, ताल
मेघ, रूठकर गये
कछारों पर छाया दुष्काल
प्रकृति कराह रही निर्वसना
बेबस अबला सी
नींद नहीं खुल रही
नशेड़ी पहरेदारों की
इज्जत लूट रहे आतंकी
हरित कछारों की
वृक्षावलियाँ आज हुई हैं
महलों की दासी
नदियों की सेवा करते थे
जो निर्झर नाले
वृक्ष हुए उद्गम से गायब
रस देने वाले
लोक धुनें हैं मूक
नहीं मुखड़े पर उल्लासी
000
सत्ता का चढ़ा नशा
नेता हैं मदहोश
उन्हें सत्ता का चढ़ा नशा
जिन गदहों को
घास चराई थी
मतपत्रों की
उनने ही बर्बादी की
संसद के सत्रों की
राजनीति ने, लोकतंत्र की
कर दी बुरी दशा
अपमानित कर दिया
न्यायविद हंस परिन्दों को
आस्तीन में पाला है
जाफर जयचन्दों को
जब पुचकारा इन्हें
इन्हीं ब्यालों ने हमें डसा
जो उकसाते रहे
सदा अलगाववाद को
कभी सुलझने नहीं दिया
उनने विवाद को
जिनने सब कुछ सहा
शिकंजा उन पर गया कसा
000
गये चाटने पत्तल जूठी
बाजारों के आकर्षण में
लोगों ने सर्वस्व लुटाया
बढ़ी विश्व के बाजारों में
चकाचौंध नकली सोने की
जितनी, धन पाने की लिप्सा
उतनी आशंका खोने की
जलाशयों के विज्ञापन ने
मृग मरीचिका सा भटकाया
संस्कारों की सारी दौलत
नग्न सभ्यताओं ने लूटी
सात्विक व्यंजन को ठुकराकर
गये चाटने पत्तल जूठी
वैभव पाने की चाहत ने
घर छानी-छप्पर बिकवाया
करती रही छलावा हमसे
अर्थव्यवस्था पूँजीवादी
प्रतिभाओं का हुआ पलायन
वाट जोहते दादा-दादी
रंग-रूप के सम्मोहन ने
भ्रामक इन्द्रजाल फैलाया
000
रुग्ण यह संवेदनाओं का शहर है
अब उमंगों की
नहीं उठती लहर है
रुग्ण यह संवेदनाओं का शहर है
ऑक्सीजन पर टिकी
इन्सानियत है
घूमती निर्भीक
अब हैवानियत है
नफरतों का
अब हवाओं में जहर है
हो गईं विद्वेष की
चौड़ी दरारें
घुट रही हैं
बेटियों की चीत्कारें
दब कराहों में गया
ममतालु स्वर है
हर तरफ, आतंक की
अंधी गुफाएँ
रक्तरंजित दिख रहीं
चारों दिशाएँ
बेबसी में
संस्कृति का खंडहर है
000
निरर्थक सब संधान हुए
लक्ष्य न कोई सधा
निरर्थक सब संधान हुए
योजनाएँ तो बनीं
किन्तु विपरीत दिशाएँ थीं
भ्रूणांकुर के पहले ही
पनपी शंकाएँ थीं
ऊषा की बेला में
दिनकर के अवसान हुए
उड़ने से पहले कट जाती
डोर पतंगों की
भुनसारे से खबरें आती
हिंसा, दंगों की
पलने से पहले ही
सपने लहूलुहान हुए
बच्चों के मुख से गायब है
अरुणारी लाली
नागफनी के आतंकों से
सहमी शेफाली
क्रूरताओं के रोज
चाटुकारी जयगान हुए
000
बिटिया सोन चिरैया
कितनी खुशियाँ बिखराती थी
कुछ दाने चुगकर गौरइया
चूजों को उड़ना सिखलाती
सखियों के संग झुण्ड बनाकर
फुदक-फुदक आँगन में आती
पीछे-पीछे दौड़-दौड़कर
किलकारी भरते थे बच्चे
गाकर ता-ता थैया
आस-पास तब थी हरियाली
अगर बजा दे कोई ताली
चिड़िया फुरै-फुर्र उड़ जाती
इन्हें पकड़ने दौड़ें बच्चे
दीदी रोके किन्तु न माने
नटखट छोटा भैया
बुने मनुज ने ताने-बाने
घर आँगन खलिहान खेत में
बिखराये जहरीले दाने
पर्यावरण बिगाड़ा हमने
चिड़ियों के बिन अब उदास है
बिटिया सोन चिरैया
000
आँखों ने ओढ़ी बेशर्मी
झूले नहीं दिखाई देते
बूढ़े वट की डाल पर
आँखों से ओझल हरियाली
दुर्लभ छटा लुभाने वाली
हमने सघन वृक्ष सब काटे
अब पड़ते सूरज के चाँटे
तृष्णा का बाजार यहाँ
अब रहता सदा उबाल पर
आहत मर्यादा पुस्तैनी
हुई स्वार्थ की जिव्हा पैनी
नये खून में है हठधर्मी
आँखों ने ओढ़ी बेशर्मी
अब पूजन में नहीं बैठती
बहुएँ पल्लू डालकर
रिश्ते-नाते दागदार हैं
बस आडम्बर झागदार हैं
हुई अमर्यादित चंचलता
है उफान पर उच्श्रृंखलता
वैभव के कपसीले सपने
रखे निरर्थक पालकर
000
हम बेघर बन्जारे हैं
जन्मजात हम रहे घुमन्तू
हम बेघर बन्जारे हैं
ठिगधर अपना नहीं ठिकाना
जहाँ जगह मिल जाती खाली
वहीं विवश हो तम्बू ताना
व्याकुल अनपढ़ भूखे बच्चे
हम अपने उद्यम के सच्चे
यद्यपि कर्मठ कर्मवीर हम
पर विपदा के मारे हैं
दौलत ने हमको दुत्कारा
यूँ तो रहे उपेक्षित लेकिन
हमें स्वार्थियों ने पुचकारा
जब चुनाव के दिन आते हैं
तब हम भी पूछे जाते हैं
जिन्हें जिताते रहे हमेशा
हम उनसे ही हारे हैं
रहा पीठ पर पूरा डेरा
अपना भी कुछ स्वाभिमान है
किन्तु आपदाओं ने घेरा
हम पर अँधियारे का पहरा
उजयारा तो दुश्मन ठहरा
आँच आन पर यदि आये तो
बन जाते अंगारे हैं
000
जड़ा नियंत्रण है फौलादी
अपनों से कट गये आज हम
साथ नहीं हैं दादा-दादी
मम्मी-डैडी बहुत व्यस्त हैं
अधिक कमाने की मजबूरी
स्वर्णिम सपने पूरे करने
हुई बुजुर्गों से भी दूरी
हमें प्रसन्न व्यस्त रखने को
कम्प्यूटर की गुड़िया ला दी
मिला नहीं ममतालू आँचल
आया ने हमको पाला है
वृद्धों का आशीष न पाया
अपनी मस्ती पर ताला है
कोमल मन, सुकुमार हृदय पर
जड़ा नियंत्रण है फौलादी
शिशु मन पर वात्सल्य बड़ों का
अब तक खुशबू सा अंकित है
किन्तु प्रथम आने की तृष्णा
प्रतिपल करती आतंकित है
नई फसल को उन्नत करने
क्यों जहरीली खाद मिला दी
000
कथा लिखी बदहाली की
पीड़ा का अध्याय जुड़ा क्यों
पुस्तक में खुशहाली की
जहाँ चाँद का चित्र बनाया
तारक दल का वहीं घनेरा
नभ पर शुभग वितान तना था
राहु-केतु से उल्का दल ने
पल में यूँ आतंक मचाया
फैली खूनी लाली थी
बन्द हुआ परियों का नर्तन
तम्बू उखड़ गये उत्सव के
हुआ दृश्य का यूँ परिवर्तन
महारास रुक गया अचानक
पल-भर में अँधियारा छाया
दुख की छाया काली थी
रक्त रंजिता हुईं दिशाएँ
ऐसी रात पिशाचिन आयी
अग्निबाण छोड़ें उल्काएँ
बहके अश्व विकास मार्ग से
चकनाचूर स्वप्न कर डाले
कथा लिखी बदहाली की
000
ढोंगी संत हुए
जयकारे लगवाने वाले
संस्कृति को लजवाने वाले
ढोंगी संत हुए
होते थे तापस वनवासी
वैभव त्याग, बनें सन्यासी
जिनने था सर्वस्व लुटाया
उनने पूज्य संत पद पाया
परम लोक हितकारी त्यागी
गौरववंत हुए
आज बही है उल्टी धारा
जो समेटते वैभव सारा
इनके उपक्रम वशीकरण हैं
यौन पिपासे कदाचरण हैं
जिन्हें भोग के सारे साधन
प्राप्त अनंत हुए
नाते नहीं धर्म से जिनके
पाप ग्रस्त हैं आश्रम उनके
अरबों की कर रहे कमाई
चाट-चाटकर गिजा मलाई
कतिपय धूर्त जरावस्था में भी
रसवंत हुए
000
सारी करुण कहानी है
आडम्बर को ओढ़े
जो तस्वीर सुहानी है
आहत अहसासों की
सारी करुण कहानी है
यहाँ दिखाई देता जो
खुशियों का मेला है
पाखंडों का भरा हुआ
संपूर्ण झमेला है
इस हरियाली की पीड़ा
तो रेगिस्तानी है
नई सभ्यता खड़ी यहाँ
संस्कृति की लाशों पर
नकली फूल उगाये हैं
उजड़े मधुमासों पर
है जहरीली हवा
नदी का दूषित पानी है
आतंकी रातों का
खूनी यहाँ सबेरा है
हर विकास के पथ पर
पसरा कुटिल अँधेरा है
भागमभाग मची है
लेकिन नहीं रवानी है
000
भुतैली काली रातें हैं
दिन आतंकी, और
भुतैली काली रातें हैं
भूखी आँतों से
रोटी की कितनी दूरी है
स्वाभिमान तक
गिरवी रखने की मजबूरी है
व्यभिचारों को देख
मूक भयभीत कनातें हैं
खौफनाक मंजर चुभते हैं
नित्य निगाहों में
ओढ़ हिरण की खाल
भेड़िये फिरते राहों में
अमन-शांति बकवास
सिर्फ भाषण की बातें हैं
नेताओं ने चेहरे पर
ओढ़ी है बेशर्मी
सूर्योदय को, सूर्यास्त
कहने की हठधर्मी
राजनीति में, राष्ट्रघात की
बिछी बिसातें हैं
000
शीश पर काल रहा मँडरा
कितना गर्म मिजाज
चतुर्दिक सन्नाटा पसरा
प्यासे सर-सरि विकल
जान का दिखता है खतरा
धरती के वन काट,
लील ली हमने हरियाली
लपटों की फुफकार
अकालों की छाया काली
कोसों दूर जानलेवा
हैं पानी के डबरा
किरणों के कोड़े बरसाता
सूर्य निकलता है
कोलतार मरुजल के जैसा
हमको छलता है
बचा नहीं पाते लपटों से
अब छतरी-छतरा
अर्थ-पिशाचों ने
धरती का आँचल फाड़ा है
पाँव कुल्हाड़ी मारी
मौसमचक्र बिगाड़ा है
इसीलिए तो आज
शीश पर काल रहा मँडरा
000
वहाँ की दुनिया काली है
जहाँ रोशनी दिखी
वहाँ की दुनिया काली है
वनस्थली वीरान
तभी तो सावन रूठा है
ज्यों नेताओं का
आश्वासन रहता झूठा है
सत्ता के गलियारों की
हर बात निराली है
आदर्शों पर मँहगाई ने
कसा शिकंजा है
रिश्वतखोरी का
दफ्तर में खूनी पंजा है
कोर्ट-कचहरी में तक
चलती खूब दलाली है
काम नहीं होते दफ्तर में
बिना कमीशन के
रिश्वत ज्यादा प्यारी लगती
मासिक वेतन से
लाँच-घूस से ही प्रसन्न
रहती घरवाली है
000
हमने हार न मानी है
रही उजड़ती हर दम
अपनी छप्पर-छानी है
पर अत्याचारों से
हमने हार न मानी है
लोहा तपता, पिटता है
लोहारों से
पुनः चमकता है तपकर
तलवारों से
संघर्षों से लिखी
प्रगति की नई कहानी है
चींटी गिर-गिरकर भी
चढ़ती कठिन पहाड़ी है
तू भी हार न मान
कि विपदा दिखती गाढ़ी है
पर्वत को भी धूल चटाई
जब-जब ठानी है
काटा जाता वृक्ष
ठूँठ रह जाती बाकी है
निकल वहीं से कोंपल ने
फिर दुनिया झाँकी है
अंगड़ाई लेकर,
हरियाली चादर तानी है
000
कलमुँही कहानी है
राजा रानी, परियों को
अब भूली नानी है
सपनों में दिखने लगती
कलमुँही कहानी है
आग बबूला दिखते हैं
अब टेसू के जंगल
भाग रहे भयभीत
गगन पर छितराये बादल
मौसम ने, बदला लेने की
शायद ठानी है
शीतल, मंद बयारों की
साँसें अवरुद्ध हुई
सूरज की किरणें आखिर
मानव पर क्रुद्ध हुई
सूख गये तालाब
नदी में बचा न पानी है
अकस्मात कर्कशा
टिटहरी क्यों चिल्लाती है
चीख-चीखकर
रात-रात भर हमें जगाती है
सदा प्रकृति के साथ
हमीं ने की मनमानी है
000
दानों के लाले हैं
बाज, गिद्ध, क्या रोक सकेंगे
नई उड़ानों को
नन्हीं चिड़ियों ने
उड़ने के सपने पाले हैं
गौरइयों के चूजों को
दानों के लाले हैं
मुखिया ने कब्जाया है
आँगन, चौगानों को
पिंजरों के बाहर भी
जाने कितने खतरे हैं
जाल बिछाये हुए शिकारी
छिपकर पसरे हैं
झुण्ड बनाकर तोड़ेगे
सारे व्यवधानों को
शोषणकारी क्रूर
किया करते मनमानी हैं
अब इन दमितों ने
मरने-मिटने की ठानी है
एक साथ मिलकर लूटेंगे
ये तहखानों को
000
पूजी जाने लगी नग्नता
आम आदमी की पीड़ा
से विमुख हुआ चिन्तन
पूजी जाने लगी नग्नता
इतना हुआ पतन
बुद्धिवादियों की कविता है
नीरस और उबाऊ मात्र
मंच की चुहलबाजियाँ
औ’ मसखरी बिकाऊ
नैतिकता औ राष्ट्रवाद से
वंचित हुआ सृजन
कविता में युगबोध नहीं
बस आडम्बर है झूठा
मौलिकता है लुप्त
षिष्टपेषण मिलता है जूठा
मजदूरों की किस्मत में
संत्रास, भूख, ठिठुरन
आम आदमी की पीड़ा को
जिन कवियों ने गाया
अकादमिक सम्मान कभी भी
उन्हें नहीं मिल पाया
आज चाटुकारी, जुगाड़ से
होता अभिनन्दन
000
हिंसा, लूट चोरी है
सुर्खियों में आज
हिंसा लूट चोरी है
उग्र ताण्डव देखने मिलते
यहाँ उन्माद के
सिल दिये है होंठ नफरत ने
सरस संवाद के
देश में भयभीत
हर कन्या किशोरी है
दाँत आदमखोर तृष्णा के
नुकीले हैं
जुर्म पर, पंजे पुलिस के
आज ढीले हैं
ख्याति कितनी
मॉब लिंचिंग ने बटोरी है
राजनैतिक गढ़ बने
कतिपय घराने हैं
दुष्प्रचारों की
वही बन्दूक ताने हैं
मजहबी हठधर्मिता
कितनी छिछोरी है
000
तिरस्कृत हुए उजाले हैं
राजनीति ने प्रश्रय देकर
उल्लू पाले हैं
इसीलिए तो आज
तिरस्कृत हुए उजाले हैं
बड़बोला है झूठ
सत्य की बंद जुबानें हैं
पक्षकार अपनी-अपनी
हठधर्मी ठाने हैं
यहाँ साक्षियों की आँखों में
पड़ते जाले हैं
जिससे ज्ञान-प्रकाश मिला
वह दीपक बुझा दिया
घात उसी ने की
जिस पर हमने विश्वास किया
जिन्हें केंचुआ समझा
निकले विषधर काले हैं
कौये, बगुले आरक्षण के
मोती पाते हैं
राजहंस अपनी
सवर्णता पर पछताते हैं
राजनीति ने लगा दिये
किस्मत पर ताले हैं
000
छंटा नहीं अँधियारा है
सत्तामद ने सदा
निर्धनों को दुत्कारा है
अतः गरीबी का, भारत से
छंटा नहीं अँधियारा है
अहंकार की ऊँचाई
जब-जब भी बड़ी हुई
तब-तब सत्ता की निश्चित ही
खटिया खड़ी हुई
उन्नति की, विपरीत दिशा में
बहकी धारा है
नेताओं ने दुखियारों को
खूब भुनाया है
दलित, गरीबों, पिछड़ों पर
हर दाँव लगाया है
आदिमयुग से नहीं
निकल पाया बंजारा है
राजनीति ने जब-जब मारा
जनता को झटका
सत्ताधीशों को उसने
सिंहासन से पटका
मरता, क्या ना करता
सत्ता को ललकारा है
000
पछुआ साँकल खटकाती है
अमराई की याद
हृदय शीतल कर जाती है
उजड़े गाँवों की गलियाँ
अब हमें रुलाती हैं
कभी खनकती रुनझुन-
रुनझुन चिड़ियों की पायल
बैलों की घंटियाँ
निकट ज्यों होवे देवालय
चूड़ी की खन-खन जैसे
पनिहारिन गाती है
शहरों में गुम गई
हमारी वह स्वच्छंद हँसी
नैसर्गिक छवियाँ
आँखों में अब तक रची-बसीं
एकाकीपन में
पछुआ साँकल खटकाती है
सपने सी लगती हैं
सारी बचपन की बातें
खलिहानों में कटती थीं
जब गर्मी की रातें
अब कूलर की हवा
देह में चुभ-चुभ जाती हैं
000
उत्तरों का सन्नाटा है
है प्रश्नों का शोर
उत्तरों का सन्नाटा है
दुर्घटना दस्तक देती है
रोज किबाड़ों पर
मँहगाई की मार
अपाहिज सूखे हाड़ों पर
हाल गरीबों का मत पूछो
गीला आटा है
सारे प्रत्याशी
चौखट पर शीश झुकाते हैं
विजयी होने पर वे ही
फिर नजर न आते हैं
उनका भू-पर नहीं
गगन में सैर सपाटा है
जो थी अपने पास
लुटा दी ममता की दमड़ी
वाट जोहती अब
आशा की मुरझाई चमड़ी
वृद्धाश्रम में छोड़
पुत्र भरता फर्राटा है
000
नैतिक मूल्य गँवाये
कान्वेन्टों में जब से
बच्चे भिजवाये हैं
चारित्रिक शुचिता के
नैतिक मूल्य गँवाये हैं
हम दो और हमारे दो का
नया जमाना है
देहातीपन से बच्चों को
आज बचाना है
इसीलिए तो गाँव छोड़
शहरों में आये हैं
आज न मम्मी शिशु को
अपना दूध पिलाती है
गाय-भैंस के गोबर से
उसको घिन आती है
बेच दिये घर-बार
स्विफ्ट मारुति ले आये हैं
किटी पार्टी करने को
जब मम्मी जाती है
मोबाइल से आया
शिशु का मन बहलाती है
हम हैं उन्नतिशील
नये साधन अपनाये हैं
000
मुस्कुराहट चिपकाई है
हमने हाथ मिलाये
लेकिन मन से नहीं मिले
अधरों पर तो भले
मुस्कुराहट चिपकाई है
लेकिन कटुता और
कपट की छुपन-छुपाई है
सच्ची बात न बोली
हमने अपने अधर सिले
खानापूर्ति किया करते हैं
लोकाचारों की
परिभाषाएँ बदल गई
उत्सव, त्यौहारों की
गाँठ बाँधकर रक्खे
मन में शिकवे और गिले
पगडंडी पर यूँ तो
हमने चौड़ी सड़क बना दी
किन्तु प्रेम-भाईचारे की
पक्की नींव हिला दी
गुटबाजी के बना लिए हैं
सबने अलग किले
000
विपदा हुई सगी
जब विलासिता के साधन
सारे उपलब्ध हुए
केवल जिव्हा छोड़
हमारे अंग शिकस्त हुए
ज्यादा से ज्यादा पाने की
तृष्णा और जगी
सगे, पराये हुए
हमारी विपदा हुई सगी
जिनसे थी उम्मीद
वही विपरीत समस्त हुए
जिन सपनों को, उम्मीदों से
था पोसा-पाला
अपमानों का वही
पिलाते हैं कडुवा प्याला
संस्कार, सम्मान भाव के
लकवाग्रस्त हुए
निकटस्थों से आज
हमारी बढ़ी बहुत दूरी
शायद हम ही नहीं समझते
उनकी मजबूरी
तृष्णा की आपाधापी में
कितने व्यस्त हुए
000
आश्वासन शहदीले हैं
केशर की क्यारी में ऊगे
संस्कार पथरीले हैं
बातों में तो रस मलाई है
किन्तु आचरण क्रूर कसैले
उपदेशों में अमृत वर्षा
दुष्प्रचार हैं घृणित विषैले
तन से तो दिखते सन्यासी
मन से बहुत रसीले हैं
है कितना पाखण्ड आजकल
राजनीति के गलियारों में
नेता बाहुबली शामिल हैं
चोर, डाकुओं, हत्यारों में
इन धोखेबाजों के सारे
आश्वासन शहदीले हैं
आदमखोर मगरमच्छों को
पाला है मीठी झीलों ने
उनको ही आहार बनाया
जब पानी माँगा भीलों ने
जिन्हें केंचुआ समझा हमने
वे विषधर जहरीले हैं
000
फटी सड़क की छाती
मंजरियों से लद जाती थी
जब रसाल की डाली
झूम-झूमकर झर जाती थी
गंधवती शेफाली
दृश्य आज वे गायब हैं
जो देते थे शीतलता
नहीं कुलाचें भरने वाली
हिरणों की चंचलता
नयन तरसते हैं निहारने
धरती की हरियाली
बुलडोजर दौड़ें दहाड़ते
फटी सड़क की छाती
क्रुद्ध हुईं सूरज की किरणें
दावानल धधकातीं
आहत, रुष्ट प्रकृति के तेवर
दिखते हैं भूचाली
संध्या का अभिषेक न होता
अब गोधूलि कणों से
वृक्ष लगाकर, कर्ज मुक्त
हो सकते प्रकृति-ऋणों से
चलो बिछा देवें धरती पर
फिर चादर हरियाली
000
बही-खाते सब झूठे हैं
कब मनुष्य समझा इनने
मजदूर किसानों को
हमने तो अपनी छाती से
पत्थर तोड़े हैं
पर अपने बँधुआ पुरखों ने
खाये कोड़े हैं
भूल नहीं सकते हैं
बचपन के अपमानों को
इनके घर में रखे
बही-खाते सब झूठे हैं
गिरवी जहाँ बाप-दादों के
रखे अँगूठे हैं
हमको जूठन और
दूध देते थे श्वानों को
दमन नहीं सह सकते
हमने मन में ठाना है
दृढ़ निश्चय कर लिये
जुल्म से अब टकराना है
मिलकर ध्वस्त करेंगे
आतंकी तहखानों को
000
निर्जला हैं नदियां बेचारी
सुबह-सुबह ही झरने लगती
अम्बर से चिन्गारी
आग बबूला हो जाती है
तपकर क्रुद्ध दुपहरी
चीख-चीखकर ताने
मारा करती रोज टिटहरी
किरणों के कोड़े बरसाता
सूरज गगन-बिहारी
पाँव कुल्हाड़ी मारी
हमने उल्टे पढ़े पहाड़े
मातु-पिता जैसे हितकारी
जंगल सभी उजाड़े
रहती है ज्वर ग्रस्त हमेशा
यह धरती महतारी
अपशकुनी हो रही हवाएँ
करतीं जादू-टोना
चिथड़ा-चिथड़ा हुआ
धरा का वो मखमली बिछौना
सूख गये तालाब
निर्जला हैं नदियां बेचारी
000
घटाटोप अँधियारे
घिरने लगे देश में
घातक घटाटोप अँधियारे
आदमखोर, ओढ़कर फिरते हैं
गोमुखी लबादा
सफल न होने देंगे हम
इनका खूँखार इरादा
छुपकर वार किया करते हैं
ये कायर हत्यारे
तीन-तलाकों से
खंडित होता मासूम निकाहा
माथे का सिन्दूर
अग्निकुण्डों में होता स्वाहा
जिव्हाएँ लपलपा रहे हैं
अर्थ पिशाच शरारे
रोज आत्महत्या करते हैं
कृषक कर्ज में डूबे
और घोषणावीरों के
हैं उदासीन मन्सूबे
अग्निबीज बोने उकसाते
नेता कुटिल हमारे
000
उनकी मालगुजारी
हम मजदूर भिखारी जैसे
उनकी मालगुजारी
जिनके घर में बंधुआ बनकर
रहे बाप-महतारी
उनके ढोर चराये
उनके खेतों में तन ओंटे
अगर मजूरी माँगी तो फिर
तन पर खाये सोंटे
वर्षा, ठंड, कड़ी गर्मी में
की उनकी रखवारी
एक जून भूखे रह करके
हम कर रहे गुजारा
और वहाँ वे पशुओं तक का
चर जाते हैं चारा
उनके अच्छे दिन आये
पर है अपनी लाचारी
मृगछौने से भूखे बच्चे
मालिक हुए कसाई
मँहगाई है मर्ज
कि जिसकी मिलती नहीं दवाई
रिश्वतखोरी बढ़ी
छूत की है असाध्य बीमारी
000
कलियों की लाचारी है
जहाँ पाठशाला बच्चों की
खोली वहीं कलारी है
चौकस चुश्त पुलिस वालों की
गश्त वहीं पर जारी है
सड़कों पर झूमा करते हैं
भरी भीड़ में ज्यों चौपाये
किसके प्राण कहाँ ले लेवें
जान बची तो लाखों पाये
यह साँडों का झुण्ड नहीं है
यह अमला सरकारी है
रोज उजाड़ रहे झोपड़ियाँ
अन्याक्रान्ति हटाने वाले
रातों रात हवेली तानें
उसी जगह पर दमखम वाले
मंत्री और बाहुबलियों की
रहती हिस्सेदारी है
लम्बे-लम्बे भाषण देते
पर्यावरण बचाने वाले
नीलामी कर रहे चमन की
बाग-बगीचों के रखवाले
जो भी चाहे इनको मसले
कलियों की लाचारी है
000
वैमनस्य की चौड़ी खाई
उनके यहाँ सदा सावन है
यहाँ एक बौछार न आई
उन पर लक्ष्मी महरबान है
रुपये छप्पर फाड़ बरसते
नहीं हमारे छप्पर-छानी
बूंद-बूंद को रहे तरसते
बच्चों की गुल्लक मुँह बाये
जुरें न उसको घेले-पाई
रही तरसती मिली न कैरी
नई बहू को आती मतली
उनके घर लतयाये जाते
आम दशहरी, लँगड़ा, फजली
यहाँ न गोरस नौनिहाल को
वहाँ श्वान को दूध मलाई
राजा भोज आज के मंत्री
दुखी श्रमिक हैं गंगू तेली
श्रमसेवी को झोपड़ पट्टी
जमाखोर की तनी हवेली
बीचों-बीच धनी-निर्धन के
वैमनस्य की चौड़ी खाई
000
भेड़िये हुँकारते हैं
मिल सकेगा त्राण
कैसे आपदाओं से
आत्मघाती जो
इरादे पल रहे हैं
ये उभरती पीढ़ियों को
छल रहे हैं लाभ प्रतिभा को
न होगा वर्जनाओं से
हो रही खूँखार
उत्तेजक जवानी
दिख रही मदहोश
अड़ियल राजधानी
अस्मिता आहत
अराजक क्रूरताओं से
शौर्य का सम्मान
मिलता है सियारों को
वाहवाही, तालियाँ हैं
दुष्प्रचारों को
भेड़िये हुँकारते हैं
कन्दराओं से
000
प्रदूषण की पैनी फाँसें
भौतिकता में
क्या खोया
क्या पाया
चलो गुनें
बारूदों से हमने
लिक्खी नई कहानी है
हमने नहीं
मूल्यवत्ता पानी की जानी है
अग्नि, पवन, जल
व्योम, धरा के
बिखरे सूत्र चुनें
पल में आज उखड़ने लगती हैं
जवान साँसें
अंतस में गड़ रहीं
प्रदूषण की पैनी फाँसें
क्या कहती है गर्म हवा
उसकी भी बात सुनें
पंचतत्व के यशोगान
ऋषियों ने गाये थे
जीवन के संदेश
भोजपत्रों में पाये थे
चलो प्रकृति का
हरियल ताना-बाना पुनः बुनें
000
है अंधानुकरण
किया विश्व-बाजारों ने
अपना सुख चैन हरण
गाँवों की गलियों को छोड़ा
हम शहरों में आये
धकियाते चलते सड़कों पर
पढ़े-लिखे चौपाये
युवकों के स्टंट
मौत को देते आमंत्रण
काट-काटकर खायीं
हमने पशुओं की बोटी
पिछड़ेपन की द्योतक हो गई
दूध-भात रोटी
जन्म दिवस पर दीप बुझाना
है अंधानुकरण
बहुत बुरा लगता युवकों को
दादी का लड़याना
उन्हें मसालेदार
सुहाता ढाबे का खाना
लगा पश्चिमी फैशन का
संस्कृति पर आज ग्रहण
000
हम खुद्दार अभागे
हमने कभी सलाम न ठोके
बाहुबली के आगे
सत्ता से, हम बना न पाये
रिश्ता कभी करीबी
हमको घेरे रही
क्रूर मँहगाई और गरीबी
तन पर कोड़े पड़े
अगर हमने अपने हक माँगे
चाटुकारियों ने सत्ता के
खूब नगाड़े पीटे
धनीराम वे हुए
और हम बुद्धुराम, घसीटे
भाग्य चाटुकारों के जागे
हम खुद्दार अभागे
पंगु प्रजा कैसे चढ़ पाये
सुख की कठिन पहाड़ी
रोज-रोज मजदूरों को
मिलती है कहाँ दिहाड़ी
साँड चरेंगे अधिकारों को
अगर नहीं हम जागे
000
घातक भ्रष्टाचार हुए
कभी नहीं बापू वाले
सपने साकार हुए
नौटंकी करने वाले
चर्चित किरदार हुए
जड़ से किया सफाया
गाँवों के उद्योगों का
होने लगा पलायन
शहरों को अब लोगों का
रहे न घर के और घाट के
यूँ लाचार हुए
गाँवों में सरपंच
शहर में मुंसिफ बिकते हैं
रिश्वत लेते हुए
भ्रष्ट अधिकारी दिखते हैं
राष्ट्र सुरक्षा में भी
घातक भ्रष्टाचार हुए
राजनीति के बादल फटते
नदियाँ उफनाती
बच जाते हैं महल
किन्तु झोपड़ियाँ बह जाती
ऐसे ही दुर्दान्त हादसे
बारम्बार हुए
000
अकाल का झंडा गाड़ा है
आज प्रदूषण ने
अकाल का झंडा गाड़ा है
कहीं अवर्षा और
कहीं बादल फट जाते हैं
कहीं बाढ़ से गाँव बहें
पर्वत ढह जाते हैं
हमने, पर्यावरण और
ऋतुचक्र बिगाड़ा है
नदी, जलाशय और
न ही पोखर भर पाये हैं
साइबेरिया से उड़कर
मेहमान न आये हैं
हमने धरती का लुभावना
आँचल फाड़ा है
मिले न सुरभित हवा
नहीं मोहक हरियाली है
रोगों की सिर पर मँडराती
छाया काली है
जड़ी-बूटियों का गुणकारी
सुलभ न काढ़ा है
000
घर में आग लगी
अपने घर के दीपक से ही
घर में आग लगी
हमने तुलसी को उखाड़कर
रोपी नागफनी
आज केक्ट्स के गमलों से
सज्जित बालकनी
रेशम जैसे रिश्तों में भी
गाँठें आज लगीं
ढाई आखर के उपदेशक
अब गुमनाम हुए
नफरत बोने वाले साधू
चर्चित आम हुए
मन्थराएँ जो घर फोडू
वे लगने लगीं सगी
वैश्वीकरण उदारवाद हैं
आकर्षक प्यारे
मीठे विज्ञापन के हैं
उत्पाद सभी खारे
भड़कीले चित्रों के कारण
तृष्णा और जगी
000
क्रूर, कुटिल नाते हैं
अमराई छैया के
दिवस याद आते हैं
टी.वी. के रोगी सा
सावन मुरझाया है
हाँफ-हाँफकर
मल्हार मेघों ने गाया है
सावन औ’ भादों
अब धूल में नहाते हैं
उजड़े वीरान आज
टेसू औ’ सेमल हैं
घने-घने ऊग रहे
लोहे के जंगल हैं
मधुमासी चर्चा से
लोग सकपकाते हैं
गंध खो चुकी अपनी
आज रातरानी है
सूख गया, कलियों की
आँखों का पानी है
पशु-पक्षी से मानव के
क्रूर कुटिल नाते हैं
000
भुक्तभोगियों के यथार्थ
चुहुलबाजियाँ मंचों से
नवगीत न करते हैं
गीतों ने अब घिसे-पिटे
सम्बोधन छोड़े हैं
नूतन लय-छन्दों से
अपने-नाते जोड़े हैं
युग की पीड़ा का अनुगायन
डटकर करते हैं
क्षेत्रवाद से विश्वग्राम तक
पहुँच गई कविता
श्रृंगारिक रसवंतबाद से
निकल गई कविता
भुक्त भोगियों के यथार्थ
संत्रास उतरते हैं
गुड़ खा लेते हैं
उनको गुलगुले नहीं भाते
प्रकृति छटा से तोड़ लिए
जिनने सारे नाते
लोक सरोकारों से
नेहिल निर्झर झरते हैं
000
दागती कोयल गोली है
अब मिठास को त्याग
दागती कोयल गोली है
छोड़े गर्म उसास
हवा छिप-छिपकर रोती है
लटें बालियों की बिखरायें
फसलें रोती हैं
अमराई से लौटा करती
खाली झोली है
सूखे के आसार
धरा के तन पपड़ाये हैं
बूढ़े बरगद दादा
बैठे मुँह लटकाये हैं
होली नीरस हुई
मात्र हुरदंग, ठिठोली है
हरियाली के साथ
हुई घातों पर घातें हैं
दिन डरावने हुए
भुतैली लगती रातें हैं
कितनी कर्कश हुई
गिद्ध कौओं की बोली है
000
पनप रहीं संकीर्ण वृत्तियाँ
लाभ-हानि से आँकी जाती है
अब रिश्तेदारी
पनप रहीं संकीर्ण वृत्तियाँ
कुटिल स्वार्थी मन में
इसीलिए संतुष्टि न मिलती
मानव को जीवन में
शंकाएँ अब, सम्बन्धों की
करतीं पहरेदारी
यानों से नापा है
हमने धरती और गगन को
फिर भी शांति नहीं मिलती है
इस मनुष्य के मन को
वेद और विज्ञान सभी हैं
मानव के हितकारी
ऋषियों, मुनियों ने पहले ही
पृष्ठ ज्ञान के खोले
विज्ञानों ने धरा-प्रकृति के
गुप्त रहस्य टटोले
सही राह चुनने की है
अब अपनी जिम्मेदारी
000
जहरीली हुई आज देश की हवा
जहरीली हुई
आज देश की हवा
समाधिस्थ वृक्ष
सभी ठाँड़े अब मौन
गर्मी में धूप से
बचाते थे जौन
उनको संत्रास से
बचायेगा कौन
कुचलने के बाद
हरी है पुनर्नवा
बालू में मुँह छिपाये
फल्गू नदी
पाँव में प्रदूषण की
बेड़ियाँ बदीं
कहीं है अकाल
कहीं गैस त्रासदी
जंगलों के सिवा
कौन देगा दवा
कितने अनजाने से
हुए आज गाँव
रेत में गरीबों की
चले कैसे नाव
जंगल तक आ गये
कुठारों के पाँव
रोयें सागौन
साज, शीशम, धवा
000
ढोर गँवार हुए
चोर लुटेरे हत्यारे
मुखिया सरदार हुए
पर अनपढ़ भोले मतदाता
ढोर गँवार हुए
सत्ता पाते ही उनके
आबाद हुए बंजर
किन्तु गरीबों के
घर-बाड़ी बिके ढोर डंगर
ऐसे हमें उखाड़ा
ज्यों हम खर-पतवार हुए
उनको सर्दी होती
तो वे स्वर्ण भस्म खाते
हमें कुपोषण होने पर
वे लंघन करवाते
रोग गरीबी का हरने
यूँ ही उपचार हुए
डाकू सब फरार हो जाते
बैंक लूट करके
हमसे जुर्म कबुलवा लेते
मार-कूट करके
हम मतदाता अपराधी,
वे थानेदार हुए
000
शिलालेख इतिहासों के
करते हैं रहस्य उद्घाटित
शिलालेख इतिहासों के
पाषाणों में छिपी साधना
इनमें धड़क रही हैं सदियां
इनके चिन्तन को कुरेदना
यहीं सिसकती हैं त्रासदियां
कुछ के तन पर बने हुए हैं
कशाघात संत्रासों के
कहीं किसी अश्वारोही ने
साध रखी मन की वल्गाएँ
कहीं घूर्णित रथचक्रों से
हुई प्रकंपित दसों दिशाएं
भाव यहाँ जीवन्त हुए हैं
पतझर के, मधुमासों के
अंकित कहीं काम की क्रीड़ा
झलके कहीं हृदय की पीड़ा
कहीं ताण्डव का नर्तन है
अंकित उद्भव और पतन है
कहीं अर्थ अधखुले अभी तक
शंका के, विश्वासों के
000
बिखरा है सर्वत्र खजाना
तुमने मन के द्वार न खोले
सांकल जड़े किवाड़ न खोले
खुद, बसंत घर से लौटाया
तुम्हें न पंचम राग सुहाया
स्वयं ओढ़कर रखी उदासी
खुशी बाँटते अगर जरा सी
नहीं तड़पते शब्द अबोले
तुम्हें गैर का सुयश न भाया
खुद कुण्ठा को है अपनाया
कहते हो मौसम हैं रूठे
ओढ़े हैं आडम्बर झूठे
इसीलिए खाये हिचकोले
तुमने देखी सिर्फ बुराई
कभी न स्वीकारी सच्चाई
नहीं सत्य को तुमने जाना
बिखरा है सर्वत्र खजाना
प्रकृति झुलाती रही हिण्डोले
000
याद आते चुलबुले दिन
गाँव के वे दुधमुंहे दिन
याद आते चुलबुले दिन
झरझराती जब फुहारें
वे नदी की तेज धारें
नाव कागज की बहाकर
कूदते नंगे नहाकर
मस्त मोहक थुल-थुले दिन
खेलकर घंटों चिटीधप
और हम जाते थे जब थक
गोद में चिपका के नानी
कान में भरती कहानी
खो गये वे चुलबुले दिन
गूँजने लगती प्रभाती
प्यार से दादी जगाती
झुण्ड में आ चहचहाते
कान में रस घोल जाते
वे रुई से गुलगुले दिन
000
बनाएँगे अब स्मार्ट सिटी
झोपड़ियों को हटा
बनाएँगे अब स्मार्ट सिटी
अरबों-खरबों का भारी
फिर बजट बनाया है
घोटालेबाजों को
फिर से काम दिलाया है
होने लगी कमीशनखोरी
फिर से घिसी-पिटी
खोजबीन हो रही
पुराने ठेकेदारों की
जिनकी साख बनी है
भारी भ्रष्टाचारों की
खेल रहीं चालाक बीबियाँ
क्लब में रोज किटी
बचा-बचा अपने वालों को
लेफ्ट टर्न तोड़े
अतिक्रमण के पड़े
गरीबों पर फिर से कोड़े
अस्सी फुट की सड़क
देखिये पचपन में सिमटी
000
हस्तिनापुर की परिपाटी
हमने अब तक नहीं
विषमता की खाई पाटी
एक ओर तो रहा देश में
मौसम रंगीला
और दूसरी ओर
अभावों का ऊँचा टीला
है कितना वैषम्य
झाबुआ, गोवा, गोहाटी
राजहंस हो गये अचानक
गायब झीलों से
दुर्भिक्षों में गये न मिलने
बैगा-भीलों से
आहंे भरती रही
बंजरों की बीहड़ घाटी
बेशर्मों ने, किया धरा का
निर्मम चीर हरण
इकतरफा ही रहा
देश का नव रूपान्तरण
दिखती है सर्वत्र
हस्तिनापुर की परिपाटी
000
तर्पण, पितर मिलौनी
खुशियाँ करती रहीं हमेशा
हमसे आँख मिचौनी
हँसी कहीं खो गई
अधर पर चिपकी रही उदासी
फेका जाता अन्न
किसी को मिले न रोटी बासी
दुर्लभ, पेज, महेरी
सब्जी पतली और अलौनी
बार-बार मैली हो जाती
अब विकास की गंगा
कहीं मॉब लिंचिंग लज्जास्पद
कहीं मजहबी दंगा
कितनी क्रूर कुरीति
बेटियों की निर्लज्ज खतौनी
वृद्धाश्रम में भेजे जिनने
बूढ़े बाप-मतारी
मृत्यु भोज का करें दिखावा
बेटे अत्याचारी
करने लगे कपूत वही
अब तर्पण, पितरमिलौनी
000
फगुनाई इच्छाएँ
कितना तड़पातीं रातों में
फगुनाई इच्छाएँ
दूर कहीं ज्यों सिसक रही हों
नूपुर की ध्वनियाँ
खिलने को व्याकुल, मुरझाईं
कचनारी कलियाँ
कितना भटकातीं सपनों में
मृग मरीचिकाएँ
लगे गगन से पंख पसारे
चंचल सोनपरी
अर्ध निमीलित नयनों में
धीरे-धीरे उतरी
फागुन में रितुराज
न रंग की गागर छलकाएँ
पहले प्रकृति नवेली
कितनी रहती बनी-ठनी
फागुन में सुलगा देती थी
जो कामाग्नि घनी
उन दृश्यों के सूत्र
आज हम पकड़ नहीं पाएँ
000
हुई तबाही है
हर आदर्श चरित्र बना है
पिछलग्गू हुरदंग का
दंगों में हर बार
यहाँ पर हुई तबाही है
गई मौत के घाट
मुखर जो हुई गवाही है
जहाँ दरोगा माना करता है
आदेश दबंग का
सत्ता से अपराधी का
दिख रहा मेल है
कानूनों पर दौलत ने
कस दी नकेल है
भयाक्रान्त कर रहा आमजन को
उन्माद लफंग का
संसद में जाकर प्रतिनिधि
दुश्मनी भँजाते हैं
समाधान की जगह
धजी का साँप बनाते हैं
सत्ता और विपक्ष
नजारा दिखलाते हैं जंग का
000
भाग्य से अपनी नहीं पटी
श्रम से नाता रहा
भाग्य से अपनी नहीं पटी
गहरा रिश्ता रहा
सदा भुखमरी-गरीबी से
विपदाओं ने साथ दिया
हर बार करीबी से
हमें दागते रहे
क्रूरता के चिमटा-चिमटी
रखे बही-खातों में
अपने रहन अँगूठे हैं
ब्याज-त्याज हम चुका रहे
वे कहते झूठे हैं
उतर न पाया कर्ज
इसी चिन्ता में उमर कटी
हमें ढालने हर साँचे में
मालिक ने पिघलाया
उन पर बार हुआ तो
हमको रक्षाकवच बनाया
हमसे रहे महल बनवाते
हमें न दी गुमटी
000
साजिशें रचकर घिनौनी
है भटकती आत्मा
अब तक पुराने तख्त की
साजिशें रचकर घिनौनी
जो कभी हथिया लिया था
स्वार्थी अंधे युगों ने
कत्ल अपनों का किया था
गंध आती है अभी भी
रन्ध्र से उस रक्त की
मांसाहारी गिद्ध
भले ही नजर न आते हैं
पाँच वर्ष के बाद
हंस बनकर मँडराते हैं
भाँप लेते हैं कुटिल
सारी नजाकत वक्त की
नोटों से हथकड़ी काटकर
भागें अपराधी
लटकाये जाते फाँसी पर
हरिश्चन्द्र गाँधी
हँसी उड़ाई जाती है
हर जगह राष्ट्र के भक्त की
000
अज्ञात दिशाओं में
उन्नति का उजयारा
अब तक नहीं गया
रूढ़िग्रस्त आदिम तम की
घनघोर गुफाओं में
आजादी के सारे सपने
चकनाचूर हुए
बलिदानी परिवार सभी
सत्ता से दूर हुए
खोज रहे स्वर्णिम भविष्य
अज्ञात दिशाओं में
आम आदमी घिरा आज भी
भूख अकालों में
बँट जाता लाभांश प्रगति का
कुटिल दलालों में
हुआ तुषारापात सदा
फलती आशाओं में
कस्तूरी वाले हिरणों सा
यह मतदाता है
सत्ता का मरुजल इसको
प्यासा तरसाता है
ग्लोबल का भी ब्याज बढ़ा
इनकी पीड़ाओं में
000
सूर्य उगाना होगा
मिले रोशनी तुम्हें
तुम्हीं को सूर्य उगाना होगा
उद्यत हों जब हाथ
उठाने जली मशालों को
तब शायद पहचान मिले
पिछड़े संथालों को
एक साथ अब इन्कलाब का
बिगुल बजाना होगा
धरे हाथ पर हाथ
न कोई हल होगा मसला
करो संगठित अब कुदाल
अपने गेंती तसला
बिखरे हुए स्वरों को
अब इक साथ मिलाना होगा
अगर समझ लोगे कीमत
अपने मतपत्रों की
ताकत खुद बढ़ जाएगी
संसद के सत्रों की
तिमिर निराशा का मिटवाने
शौर्य जगाना होगा
000
कड़वे दिवस बिताये हैं
जहाँ छद्म हो वहाँ
भला क्या सच्चाई दिखती
उनसे पूछो जिनने
कड़वे दिवस बिताये हैं
मीठे फल चाहे थे
खट्टे अनुभव पाये हैं
धुंधले दरपन में
तस्वीरें साफ नहीं दिखती
बरबस मुस्कानें चिपकाकर
दुख सह लेती हैं
निश्छल आँखें किन्तु हमारी
सच कह देती हैं रोटी तो मिलती हैं
पर पहले अस्मत बिकती
चलती है दरबारों में
अब केवल लफ्फाजी
जी हुजूर कहकर
पुतले की सहते नाराजी
बिकी कलम, कायरपन को तक
शौर्य रही लिखती
000
बेशर्मी के ताले
सत्ता के कानों में हैं
बेशर्मी के ताले
राजनीति में छुटभैये
बछड़े भर रहे कुलाँचें
किसको पड़ी जरूरत
अपना संविधान बाँचें
कुछ तो बंद किये हैं
कुछ की आँखों में जाले
जहाँ देखिये वहीं घिरे हैं
आतंकी बादल
होते हैं विस्फोट
भला क्या कर लेगी सांकल
राजनीति की गंगा में
मिल रहे अपावन नाले
सारस्वत मंचों ने
कैसी ओढ़ी फूहड़ता
जहाँ चुटकुलेबाज
बड़ी बेशर्मी से पढ़ता
कवि-कवित्रियाँ, लगें कि
जीजा, साली औ’ साले
000
राजनीति का अधोपतन
सत्ता परिवर्तन के लक्षित
जब सिलसिले हुए
पद हथियाने को नेता
कितने दोगले हुए
रातों रात बदल जाती हैं
पुष्तैनी निष्ठायें
मुद्रा मिले उठाने तो
ये दलदल में फँस जायें
दृढ़ निश्चय वाले चरित्र
पल में पिलपिले हुए
राजनीति का अधोपन
कुछ दशकों में आया
पुरखों का बलिदान, त्याग
मिट्टी में दफनाया
ज्यादा और गरीब-अमीरों के
फासले हुए
दिखता नहीं विकास
बनाये गये राज्य कितने
अब क्या जितने नेता हैं
होंगे टुकड़े उतने जितने प्रान्त बनाये
उतने ज्यादा जिले हुए
000
बढ़ने लगी शुगर
व्याधिग्रस्त दिखते
गाँवों से ज्यादा आज शहर
शक्कर महँगी किन्तु
खून में बढ़ने लगी शुगर
करते नहीं मशक्कत
बैठे-बैठे खाते हैं
खूब तेल घी खाकर
अपनी तोंद बढ़ाते हैं
क्यों चिन्ता रहती
भर देते इनकम टैक्स अगर
जो महनतकश
उन्हें न कोई रोग सताते हैं
चर्बी उन्हें न चढ़ती
रूखा-सूखा खाते हैं
उनके भूखे पेट
हजम कर जाते हैं पत्थर
भले गरीबी, विपदाओं से
घिरी रहे बस्ती
लोक धुनों में नाचें-गायें
करें श्रमिक मस्ती
बंजर में भी फसल उगाते
इनके बैल बखर
000
होते लोग हलाल
लूट रहे भोली जनता को
शहरों के ये माल
सीना ताने जहाँ पहुँचकर
होते लोग हलाल
इन मालों के तले दबे हैं
छोटे लघु उत्पाद
इन भड़कीले बाजारों की
है पुख्ता बुनियाद
मध्यम वर्गी जीवन शैली के
जी के जंजाल
हैं उतरन के लिए विवश
ये श्रम सेवी मजदूर
सदा पहुँच से ऊपर फलते
सुख के पिंडखजूर
ये अलभ्य को नहीं ललकते
हैं निर्धन कंगाल
समा गये इनके गालों में
लघु कुटीर उद्योग
शोषणकारी अर्थव्यवस्था
करती नये प्रयोग
तरुणाई को भटकाता है
भ्रामक मायाजाल
000
प्यासी जर्जर दुखी नदी है
कोई दानी प्यास बुझा दे
प्यासी जर्जर दुखी नदी है
दरक रहे हैं अंग
भसकने लगे
सभी तटरक्षक टीले
अंग-भंग कर रहे माफिया
छीनें रजत वस्त्र रेतीले
बहकर आता कीच, मूत्र, मल
वही गंदगी इसे बदी है
टूट न जाएँ इनकी साँसें
हैं बीमार सहायक सखियाँ
नभ पर घटा तलाश रही हैं
व्याकुल इन नदियों की अँखियाँ
पुनः भगीरथ देने में
अब सक्षम दिखती नहीं सदी है
रहा अंधविश्वास
नदी की हमने नजर उतारी
किन्तु कीच, मल-मूत्र मिलाना
अब तक उसमें जारी
साक्षरता यूँ बढ़ी
रूढ़ियाँ मन पर रहीं लदी
000
उत्तेजक हो रही सभ्यता
उत्तेजक हो रही सभ्यता
घूमे अंग उघार
उगल रही है अतः लेखनी
शब्द नहीं अंगार
होड़ लगी है किसने कितने
कपड़े पहने झीने
ललचाती श्वानों की जिव्हा
यौवन का रस पीने
चैनल सभी परोस रहे हैं
टी. वी. पर व्याभिचार
कौये और हंस में
कोई अन्तर नहीं रहा
कोका और पेप्सी में
अब चातक नहा रहा
करता है पथभ्रष्ट सभी को
भड़कीला बाजार
सांस्कृतिक संकल्पों को
तृष्णा ने तोड़ा है
हरियाली चर रहा
पुष्ट दौलत का घोड़ा है
विश्वग्राम बन गया, बेचने
विध्वंसक हथियार
000
कण-कण जहरीला है
परवशता में छोड़ गाँव
हम शहर चले आये
एक बार टूटे रिश्ते
फिर कभी न जुड़ पाये
हमने मेहनत कर
खेतों में अन्न उगाया है
हम मजदूरों से
मालिक ने वैभव पाया है
बदले में श्रमिकों ने
अक्सर कोड़े ही खाये
राशन की दुकानों में भी
बड़ी कतारें हैं
लाचारी की नाव
और जर्जर पतवारें हैं
तृष्णा की भँवरों में
बेबस डूबे उतराये
दम घुटता है यहाँ
जहाँ कण-कण जहरीला है
उजले कागज पर हो जाता
काला-पीला है
अस्मत के आभूषण तक
हम बचा नहीं पाये
000
हत्थे पर हमीं चढ़े
बिना किये अपराध
हमारे सिर पर गये मढ़े
फैलाता आतंक गाँव में
मुखिया का बेटा
सुने नहीं फरियाद
दरोगा पीकर है लेटा
किसकी हिम्मत है जो
अर्जी लेकर वहाँ बढ़े
आश्वासन दे जाते हैं
हर बार चुनावों में
मरहम नहीं लगाते नेता
रिसते घावों में
लूट-पाट उनने की
पर हत्थे पर हमीं चढ़े
साहूकार जमींदारों के
लिखतम झूठे हैं
गिरवी रखे जहाँ पुरखों के
कटे अँगूठे हैं
जीवन बीता कर्ज चुकाते
आखर बिना पढ़े
000
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