भूखे भील गए- आचार्य भगवत दुबे

 भूखे भील गए- आचार्य भगवत दुबे



भूखे भील गये


न्याय मांगने, गाँव हमारे 

जब तहसील गये 

न्यायालय, 

खलिहान, खेत, घर

गहने लील गये 

लिया कर्ज 

कुटकी, कोदों की 

फसल गई बोई 

फलीभूत आशा के होते 

लगा रोग कोई 

सांड तकादों के

लठैत खेतों में ढील गये 

गिरवी रखा अँगूठा 

करने बेटी का गौना 

छोड़ पढ़ाई 

हरवाही करने 

निकला छौना 

चिन्ताओं के बोझ

सुकोमल काँधे छील गये 

कभी न छँट पाया 

जीवन से विपदा का कुहरा 

राजनीति का इन्हें 

बनाया गया सदा मुहरा 

दिल्ली लोककला दिखलाने

भूखे-भील गये

000



पपड़ाये हैं अधर नदी के


पपड़ाये हैं अधर नदी के

है व्याकुल प्यासी 

जर्जर जीर्ण-शीर्ण दिखते हैं 

झील, सरोवर, ताल 

मेघ, रूठकर गये 

कछारों पर छाया दुष्काल 

प्रकृति कराह रही निर्वसना

बेबस अबला सी

नींद नहीं खुल रही 

नशेड़ी पहरेदारों की 

इज्जत लूट रहे आतंकी 

हरित कछारों की 

वृक्षावलियाँ आज हुई हैं

महलों की दासी 

नदियों की सेवा करते थे 

जो निर्झर नाले 

वृक्ष हुए उद्गम से गायब 

रस देने वाले 

लोक धुनें हैं मूक

नहीं मुखड़े पर उल्लासी

000











सत्ता का चढ़ा नशा


नेता हैं मदहोश

उन्हें सत्ता का चढ़ा नशा 

जिन गदहों को 

घास चराई थी 

मतपत्रों की 

उनने ही बर्बादी की 

संसद के सत्रों की 

राजनीति ने, लोकतंत्र की

कर दी बुरी दशा 

अपमानित कर दिया 

न्यायविद हंस परिन्दों को 

आस्तीन में पाला है 

जाफर जयचन्दों को 

जब पुचकारा इन्हें

इन्हीं ब्यालों ने हमें डसा 

जो उकसाते रहे 

सदा अलगाववाद को 

कभी सुलझने नहीं दिया 

उनने विवाद को 

जिनने सब कुछ सहा

शिकंजा उन पर गया कसा

000











गये चाटने पत्तल जूठी


बाजारों के आकर्षण में

लोगों ने सर्वस्व लुटाया 

बढ़ी विश्व के बाजारों में 

चकाचौंध नकली सोने की 

जितनी, धन पाने की लिप्सा 

उतनी आशंका खोने की 

जलाशयों के विज्ञापन ने

मृग मरीचिका सा भटकाया 

संस्कारों की सारी दौलत 

नग्न सभ्यताओं ने लूटी 

सात्विक व्यंजन को ठुकराकर 

गये चाटने पत्तल जूठी 

वैभव पाने की चाहत ने

घर छानी-छप्पर बिकवाया 

करती रही छलावा हमसे 

अर्थव्यवस्था पूँजीवादी 

प्रतिभाओं का हुआ पलायन 

वाट जोहते दादा-दादी 

रंग-रूप के सम्मोहन ने

भ्रामक इन्द्रजाल फैलाया

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रुग्ण यह संवेदनाओं का शहर है


अब उमंगों की 

नहीं उठती लहर है

रुग्ण यह संवेदनाओं का शहर है 

ऑक्सीजन पर टिकी 

इन्सानियत है 

घूमती निर्भीक 

अब हैवानियत है 

नफरतों का

अब हवाओं में जहर है 

हो गईं विद्वेष की 

चौड़ी दरारें 

घुट रही हैं 

बेटियों की चीत्कारें 

दब कराहों में गया

ममतालु स्वर है

हर तरफ, आतंक की 

अंधी गुफाएँ 

रक्तरंजित दिख रहीं 

चारों दिशाएँ 

बेबसी में

संस्कृति का खंडहर है

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निरर्थक सब संधान हुए


लक्ष्य न कोई सधा

निरर्थक सब संधान हुए 

योजनाएँ तो बनीं 

किन्तु विपरीत दिशाएँ थीं 

भ्रूणांकुर के पहले ही 

पनपी शंकाएँ थीं 

ऊषा की बेला में

दिनकर के अवसान हुए 

उड़ने से पहले कट जाती 

डोर पतंगों की 

भुनसारे से खबरें आती 

हिंसा, दंगों की 

पलने से पहले ही

सपने लहूलुहान हुए 

बच्चों के मुख से गायब है 

अरुणारी लाली 

नागफनी के आतंकों से 

सहमी शेफाली 

क्रूरताओं के रोज

चाटुकारी जयगान हुए

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बिटिया सोन चिरैया


कितनी खुशियाँ बिखराती थी

कुछ दाने चुगकर गौरइया 

चूजों को उड़ना सिखलाती 

सखियों के संग झुण्ड बनाकर 

फुदक-फुदक आँगन में आती 

पीछे-पीछे दौड़-दौड़कर 

किलकारी भरते थे बच्चे

गाकर ता-ता थैया 

आस-पास तब थी हरियाली 

अगर बजा दे कोई ताली 

चिड़िया फुरै-फुर्र उड़ जाती 

इन्हें पकड़ने दौड़ें बच्चे 

दीदी रोके किन्तु न माने

नटखट छोटा भैया

बुने मनुज ने ताने-बाने 

घर आँगन खलिहान खेत में 

बिखराये जहरीले दाने 

पर्यावरण बिगाड़ा हमने 

चिड़ियों के बिन अब उदास है

बिटिया सोन चिरैया

000









आँखों ने ओढ़ी बेशर्मी


झूले नहीं दिखाई देते

बूढ़े वट की डाल पर 

आँखों से ओझल हरियाली 

दुर्लभ छटा लुभाने वाली 

हमने सघन वृक्ष सब काटे 

अब पड़ते सूरज के चाँटे 

तृष्णा का बाजार यहाँ

अब रहता सदा उबाल पर 

आहत मर्यादा पुस्तैनी 

हुई स्वार्थ की जिव्हा पैनी 

नये खून में है हठधर्मी 

आँखों ने ओढ़ी बेशर्मी 

अब पूजन में नहीं बैठती

बहुएँ पल्लू डालकर 

रिश्ते-नाते दागदार हैं 

बस आडम्बर झागदार हैं 

हुई अमर्यादित चंचलता 

है उफान पर उच्श्रृंखलता 

वैभव के कपसीले सपने

रखे निरर्थक पालकर

000











हम बेघर बन्जारे हैं


जन्मजात हम रहे घुमन्तू

हम बेघर बन्जारे हैं 

ठिगधर अपना नहीं ठिकाना 

जहाँ जगह मिल जाती खाली 

वहीं विवश हो तम्बू ताना 

व्याकुल अनपढ़ भूखे बच्चे 

हम अपने उद्यम के सच्चे 

यद्यपि कर्मठ कर्मवीर हम

पर विपदा के मारे हैं 

दौलत ने हमको दुत्कारा 

यूँ तो रहे उपेक्षित लेकिन 

हमें स्वार्थियों ने पुचकारा 

जब चुनाव के दिन आते हैं 

तब हम भी पूछे जाते हैं 

जिन्हें जिताते रहे हमेशा

हम उनसे ही हारे हैं 

रहा पीठ पर पूरा डेरा 

अपना भी कुछ स्वाभिमान है 

किन्तु आपदाओं ने घेरा 

हम पर अँधियारे का पहरा 

उजयारा तो दुश्मन ठहरा

आँच आन पर यदि आये तो

बन जाते अंगारे हैं

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जड़ा नियंत्रण है फौलादी

अपनों से कट गये आज हम

साथ नहीं हैं दादा-दादी 

मम्मी-डैडी बहुत व्यस्त हैं 

अधिक कमाने की मजबूरी 

स्वर्णिम सपने पूरे करने 

हुई बुजुर्गों से भी दूरी 

हमें प्रसन्न व्यस्त रखने को

कम्प्यूटर की गुड़िया ला दी 

मिला नहीं ममतालू आँचल 

आया ने हमको पाला है 

वृद्धों का आशीष न पाया

अपनी मस्ती पर ताला है 

कोमल मन, सुकुमार हृदय पर

जड़ा नियंत्रण है फौलादी 

शिशु मन पर वात्सल्य बड़ों का 

अब तक खुशबू सा अंकित है 

किन्तु प्रथम आने की तृष्णा 

प्रतिपल करती आतंकित है 

नई फसल को उन्नत करने

क्यों जहरीली खाद मिला दी

000












कथा लिखी बदहाली की


पीड़ा का अध्याय जुड़ा क्यों

पुस्तक में खुशहाली की 

जहाँ चाँद का चित्र बनाया 

तारक दल का वहीं घनेरा 

नभ पर शुभग वितान तना था 

राहु-केतु से उल्का दल ने 

पल में यूँ आतंक मचाया

फैली खूनी लाली थी

बन्द हुआ परियों का नर्तन 

तम्बू उखड़ गये उत्सव के 

हुआ दृश्य का यूँ परिवर्तन 

महारास रुक गया अचानक 

पल-भर में अँधियारा छाया

दुख की छाया काली थी 

रक्त रंजिता हुईं दिशाएँ 

ऐसी रात पिशाचिन आयी 

अग्निबाण छोड़ें उल्काएँ 

बहके अश्व विकास मार्ग से 

चकनाचूर स्वप्न कर डाले

कथा लिखी बदहाली की

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ढोंगी संत हुए


जयकारे लगवाने वाले 

संस्कृति को लजवाने वाले

ढोंगी संत हुए 

होते थे तापस वनवासी 

वैभव त्याग, बनें सन्यासी 

जिनने था सर्वस्व लुटाया 

उनने पूज्य संत पद पाया 

परम लोक हितकारी त्यागी

गौरववंत हुए 

आज बही है उल्टी धारा 

जो समेटते वैभव सारा 

इनके उपक्रम वशीकरण हैं 

यौन पिपासे कदाचरण हैं 

जिन्हें भोग के सारे साधन

प्राप्त अनंत हुए 

नाते नहीं धर्म से जिनके 

पाप ग्रस्त हैं आश्रम उनके 

अरबों की कर रहे कमाई 

चाट-चाटकर गिजा मलाई 

कतिपय धूर्त जरावस्था में भी

रसवंत हुए

000









सारी करुण कहानी है


आडम्बर को ओढ़े 

जो तस्वीर सुहानी है 

आहत अहसासों की

सारी करुण कहानी है 

यहाँ दिखाई देता जो 

खुशियों का मेला है 

पाखंडों का भरा हुआ 

संपूर्ण झमेला है 

इस हरियाली की पीड़ा

तो रेगिस्तानी है 

नई सभ्यता खड़ी यहाँ 

संस्कृति की लाशों पर 

नकली फूल उगाये हैं 

उजड़े मधुमासों पर 

है जहरीली हवा

नदी का दूषित पानी है 

आतंकी रातों का 

खूनी यहाँ सबेरा है 

हर विकास के पथ पर 

पसरा कुटिल अँधेरा है 

भागमभाग मची है

लेकिन नहीं रवानी है

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भुतैली काली रातें हैं


दिन आतंकी, और

भुतैली काली रातें हैं 

भूखी आँतों से 

रोटी की कितनी दूरी है 

स्वाभिमान तक 

गिरवी रखने की मजबूरी है 

व्यभिचारों को देख

मूक भयभीत कनातें हैं 

खौफनाक मंजर चुभते हैं 

नित्य निगाहों में 

ओढ़ हिरण की खाल 

भेड़िये फिरते राहों में 

अमन-शांति बकवास

सिर्फ भाषण की बातें हैं 

नेताओं ने चेहरे पर 

ओढ़ी है बेशर्मी 

सूर्योदय को, सूर्यास्त 

कहने की हठधर्मी 

राजनीति में, राष्ट्रघात की

बिछी बिसातें हैं

000











शीश पर काल रहा मँडरा


कितना गर्म मिजाज 

चतुर्दिक सन्नाटा पसरा 

प्यासे सर-सरि विकल

जान का दिखता है खतरा 

धरती के वन काट, 

लील ली हमने हरियाली 

लपटों की फुफकार 

अकालों की छाया काली 

कोसों दूर जानलेवा

हैं पानी के डबरा 

किरणों के कोड़े बरसाता 

सूर्य निकलता है 

कोलतार मरुजल के जैसा 

हमको छलता है 

बचा नहीं पाते लपटों से

अब छतरी-छतरा 

अर्थ-पिशाचों ने 

धरती का आँचल फाड़ा है 

पाँव कुल्हाड़ी मारी 

मौसमचक्र बिगाड़ा है 

इसीलिए तो आज

शीश पर काल रहा मँडरा

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वहाँ की दुनिया काली है


जहाँ रोशनी दिखी

वहाँ की दुनिया काली है 

वनस्थली वीरान 

तभी तो सावन रूठा है 

ज्यों नेताओं का 

आश्वासन रहता झूठा है 

सत्ता के गलियारों की

हर बात निराली है 

आदर्शों पर मँहगाई ने 

कसा शिकंजा है 

रिश्वतखोरी का 

दफ्तर में खूनी पंजा है 

कोर्ट-कचहरी में तक

चलती खूब दलाली है 

काम नहीं होते दफ्तर में 

बिना कमीशन के 

रिश्वत ज्यादा प्यारी लगती 

मासिक वेतन से 

लाँच-घूस से ही प्रसन्न

रहती घरवाली है

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हमने हार न मानी है


रही उजड़ती हर दम 

अपनी छप्पर-छानी है 

पर अत्याचारों से

हमने हार न मानी है 

लोहा तपता, पिटता है 

लोहारों से 

पुनः चमकता है तपकर 

तलवारों से 

संघर्षों से लिखी

प्रगति की नई कहानी है 

चींटी गिर-गिरकर भी 

चढ़ती कठिन पहाड़ी है 

तू भी हार न मान 

कि विपदा दिखती गाढ़ी है 

पर्वत को भी धूल चटाई

जब-जब ठानी है

काटा जाता वृक्ष 

ठूँठ रह जाती बाकी है 

निकल वहीं से कोंपल ने 

फिर दुनिया झाँकी है 

अंगड़ाई लेकर,

हरियाली चादर तानी है

000









कलमुँही कहानी है


राजा रानी, परियों को 

अब भूली नानी है 

सपनों में दिखने लगती

कलमुँही कहानी है 

आग बबूला दिखते हैं 

अब टेसू के जंगल 

भाग रहे भयभीत 

गगन पर छितराये बादल 

मौसम ने, बदला लेने की

शायद ठानी है 

शीतल, मंद बयारों की 

साँसें अवरुद्ध हुई 

सूरज की किरणें आखिर 

मानव पर क्रुद्ध हुई 

सूख गये तालाब

नदी में बचा न पानी है

अकस्मात कर्कशा 

टिटहरी क्यों चिल्लाती है 

चीख-चीखकर 

रात-रात भर हमें जगाती है 

सदा प्रकृति के साथ

हमीं ने की मनमानी है

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दानों के लाले हैं


बाज, गिद्ध, क्या रोक सकेंगे

नई उड़ानों को 

नन्हीं चिड़ियों ने 

उड़ने के सपने पाले हैं 

गौरइयों के चूजों को 

दानों के लाले हैं 

मुखिया ने कब्जाया है

आँगन, चौगानों को 

पिंजरों के बाहर भी 

जाने कितने खतरे हैं 

जाल बिछाये हुए शिकारी 

छिपकर पसरे हैं 

झुण्ड बनाकर तोड़ेगे

सारे व्यवधानों को 

शोषणकारी क्रूर 

किया करते मनमानी हैं 

अब इन दमितों ने 

मरने-मिटने की ठानी है 

एक साथ मिलकर लूटेंगे

ये तहखानों को

000











पूजी जाने लगी नग्नता


आम आदमी की पीड़ा 

से विमुख हुआ चिन्तन 

पूजी जाने लगी नग्नता

इतना हुआ पतन 

बुद्धिवादियों की कविता है 

नीरस और उबाऊ मात्र 

मंच की चुहलबाजियाँ 

औ’ मसखरी बिकाऊ 

नैतिकता औ राष्ट्रवाद से

वंचित हुआ सृजन 

कविता में युगबोध नहीं 

बस आडम्बर है झूठा 

मौलिकता है लुप्त 

षिष्टपेषण मिलता है जूठा 

मजदूरों की किस्मत में

संत्रास, भूख, ठिठुरन 

आम आदमी की पीड़ा को 

जिन कवियों ने गाया 

अकादमिक सम्मान कभी भी 

उन्हें नहीं मिल पाया 

आज चाटुकारी, जुगाड़ से

होता अभिनन्दन

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हिंसा, लूट चोरी है


सुर्खियों में आज

हिंसा लूट चोरी है 

उग्र ताण्डव देखने मिलते 

यहाँ उन्माद के 

सिल दिये है होंठ नफरत ने 

सरस संवाद के 

देश में भयभीत

हर कन्या किशोरी है 

दाँत आदमखोर तृष्णा के 

नुकीले हैं 

जुर्म पर, पंजे पुलिस के 

आज ढीले हैं 

ख्याति कितनी

मॉब लिंचिंग ने बटोरी है 

राजनैतिक गढ़ बने 

कतिपय घराने हैं 

दुष्प्रचारों की 

वही बन्दूक ताने हैं 

मजहबी हठधर्मिता

कितनी छिछोरी है

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तिरस्कृत हुए उजाले हैं


राजनीति ने प्रश्रय देकर 

उल्लू पाले हैं 

इसीलिए तो आज

तिरस्कृत हुए उजाले हैं 

बड़बोला है झूठ 

सत्य की बंद जुबानें हैं 

पक्षकार अपनी-अपनी 

हठधर्मी ठाने हैं 

यहाँ साक्षियों की आँखों में

पड़ते जाले हैं 

जिससे ज्ञान-प्रकाश मिला 

वह दीपक बुझा दिया 

घात उसी ने की 

जिस पर हमने विश्वास किया 

जिन्हें केंचुआ समझा

निकले विषधर काले हैं 

कौये, बगुले आरक्षण के 

मोती पाते हैं 

राजहंस अपनी 

सवर्णता पर पछताते हैं 

राजनीति ने लगा दिये

किस्मत पर ताले हैं

000










छंटा नहीं अँधियारा है


सत्तामद ने सदा 

निर्धनों को दुत्कारा है 

अतः गरीबी का, भारत से

छंटा नहीं अँधियारा है 

अहंकार की ऊँचाई 

जब-जब भी बड़ी हुई 

तब-तब सत्ता की निश्चित ही 

खटिया खड़ी हुई 

उन्नति की, विपरीत दिशा में

बहकी धारा है 

नेताओं ने दुखियारों को 

खूब भुनाया है 

दलित, गरीबों, पिछड़ों पर 

हर दाँव लगाया है 

आदिमयुग से नहीं

निकल पाया बंजारा है 

राजनीति ने जब-जब मारा 

जनता को झटका 

सत्ताधीशों को उसने 

सिंहासन से पटका 

मरता, क्या ना करता

सत्ता को ललकारा है

000








पछुआ साँकल खटकाती है


अमराई की याद 

हृदय शीतल कर जाती है 

उजड़े गाँवों की गलियाँ

अब हमें रुलाती हैं 

कभी खनकती रुनझुन-

रुनझुन चिड़ियों की पायल 

बैलों की घंटियाँ 

निकट ज्यों होवे देवालय 

चूड़ी की खन-खन जैसे

पनिहारिन गाती है 

शहरों में गुम गई 

हमारी वह स्वच्छंद हँसी 

नैसर्गिक छवियाँ 

आँखों में अब तक रची-बसीं 

एकाकीपन में

पछुआ साँकल खटकाती है 

सपने सी लगती हैं 

सारी बचपन की बातें 

खलिहानों में कटती थीं 

जब गर्मी की रातें 

अब कूलर की हवा

देह में चुभ-चुभ जाती हैं

000









उत्तरों का सन्नाटा है


है प्रश्नों का शोर

उत्तरों का सन्नाटा है 

दुर्घटना दस्तक देती है 

रोज किबाड़ों पर 

मँहगाई की मार

अपाहिज सूखे हाड़ों पर 

हाल गरीबों का मत पूछो

गीला आटा है 

सारे प्रत्याशी 

चौखट पर शीश झुकाते हैं 

विजयी होने पर वे ही 

फिर नजर न आते हैं 

उनका भू-पर नहीं

गगन में सैर सपाटा है 

जो थी अपने पास 

लुटा दी ममता की दमड़ी 

वाट जोहती अब 

आशा की मुरझाई चमड़ी 

वृद्धाश्रम में छोड़

पुत्र भरता फर्राटा है

000











नैतिक मूल्य गँवाये


कान्वेन्टों में जब से 

बच्चे भिजवाये हैं 

चारित्रिक शुचिता के

नैतिक मूल्य गँवाये हैं 

हम दो और हमारे दो का 

नया जमाना है 

देहातीपन से बच्चों को 

आज बचाना है 

इसीलिए तो गाँव छोड़

शहरों में आये हैं 

आज न मम्मी शिशु को 

अपना दूध पिलाती है 

गाय-भैंस के गोबर से 

उसको घिन आती है 

बेच दिये घर-बार

स्विफ्ट मारुति ले आये हैं 

किटी पार्टी करने को 

जब मम्मी जाती है 

मोबाइल से आया 

शिशु का मन बहलाती है 

हम हैं उन्नतिशील

नये साधन अपनाये हैं

000









मुस्कुराहट चिपकाई है


हमने हाथ मिलाये

लेकिन मन से नहीं मिले 

अधरों पर तो भले 

मुस्कुराहट चिपकाई है 

लेकिन कटुता और 

कपट की छुपन-छुपाई है 

सच्ची बात न बोली

हमने अपने अधर सिले 

खानापूर्ति किया करते हैं 

लोकाचारों की 

परिभाषाएँ बदल गई 

उत्सव, त्यौहारों की 

गाँठ बाँधकर रक्खे

मन में शिकवे और गिले 

पगडंडी पर यूँ तो 

हमने चौड़ी सड़क बना दी 

किन्तु प्रेम-भाईचारे की 

पक्की नींव हिला दी 

गुटबाजी के बना लिए हैं

सबने अलग किले

000











विपदा हुई सगी


जब विलासिता के साधन 

सारे उपलब्ध हुए 

केवल जिव्हा छोड़

हमारे अंग शिकस्त हुए 

ज्यादा से ज्यादा पाने की 

तृष्णा और जगी 

सगे, पराये हुए 

हमारी विपदा हुई सगी 

जिनसे थी उम्मीद

वही विपरीत समस्त हुए 

जिन सपनों को, उम्मीदों से 

था पोसा-पाला 

अपमानों का वही 

पिलाते हैं कडुवा प्याला 

संस्कार, सम्मान भाव के

लकवाग्रस्त हुए 

निकटस्थों से आज 

हमारी बढ़ी बहुत दूरी 

शायद हम ही नहीं समझते 

उनकी मजबूरी 

तृष्णा की आपाधापी में

कितने व्यस्त हुए

000









आश्वासन शहदीले हैं


केशर की क्यारी में ऊगे

संस्कार पथरीले हैं 

बातों में तो रस मलाई है 

किन्तु आचरण क्रूर कसैले 

उपदेशों में अमृत वर्षा 

दुष्प्रचार हैं घृणित विषैले 

तन से तो दिखते सन्यासी

मन से बहुत रसीले हैं 

है कितना पाखण्ड आजकल 

राजनीति के गलियारों में 

नेता बाहुबली शामिल हैं 

चोर, डाकुओं, हत्यारों में 

इन धोखेबाजों के सारे

आश्वासन शहदीले हैं 

आदमखोर मगरमच्छों को 

पाला है मीठी झीलों ने 

उनको ही आहार बनाया 

जब पानी माँगा भीलों ने 

जिन्हें केंचुआ समझा हमने

वे विषधर जहरीले हैं

000











फटी सड़क की छाती


मंजरियों से लद जाती थी 

जब रसाल की डाली 

झूम-झूमकर झर जाती थी

गंधवती शेफाली 

दृश्य आज वे गायब हैं 

जो देते थे शीतलता 

नहीं कुलाचें भरने वाली 

हिरणों की चंचलता 

नयन तरसते हैं निहारने

धरती की हरियाली 

बुलडोजर दौड़ें दहाड़ते 

फटी सड़क की छाती 

क्रुद्ध हुईं सूरज की किरणें 

दावानल धधकातीं 

आहत, रुष्ट प्रकृति के तेवर

दिखते हैं भूचाली 

संध्या का अभिषेक न होता 

अब गोधूलि कणों से 

वृक्ष लगाकर, कर्ज मुक्त 

हो सकते प्रकृति-ऋणों से 

चलो बिछा देवें धरती पर

फिर चादर हरियाली

000









बही-खाते सब झूठे हैं


कब मनुष्य समझा इनने

मजदूर किसानों को 

हमने तो अपनी छाती से 

पत्थर तोड़े हैं 

पर अपने बँधुआ पुरखों ने 

खाये कोड़े हैं 

भूल नहीं सकते हैं

बचपन के अपमानों को 

इनके घर में रखे 

बही-खाते सब झूठे हैं 

गिरवी जहाँ बाप-दादों के 

रखे अँगूठे हैं 

हमको जूठन और

दूध देते थे श्वानों को 

दमन नहीं सह सकते 

हमने मन में ठाना है 

दृढ़ निश्चय कर लिये 

जुल्म से अब टकराना है 

मिलकर ध्वस्त करेंगे

आतंकी तहखानों को

000











निर्जला हैं नदियां बेचारी


सुबह-सुबह ही झरने लगती

अम्बर से चिन्गारी 

आग बबूला हो जाती है 

तपकर क्रुद्ध दुपहरी 

चीख-चीखकर ताने 

मारा करती रोज टिटहरी 

किरणों के कोड़े बरसाता

सूरज गगन-बिहारी 

पाँव कुल्हाड़ी मारी 

हमने उल्टे पढ़े पहाड़े 

मातु-पिता जैसे हितकारी 

जंगल सभी उजाड़े 

रहती है ज्वर ग्रस्त हमेशा

यह धरती महतारी 

अपशकुनी हो रही हवाएँ 

करतीं जादू-टोना 

चिथड़ा-चिथड़ा हुआ 

धरा का वो मखमली बिछौना 

सूख गये तालाब

निर्जला हैं नदियां बेचारी

000











घटाटोप अँधियारे


घिरने लगे देश में

घातक घटाटोप अँधियारे 

आदमखोर, ओढ़कर फिरते हैं 

गोमुखी लबादा 

सफल न होने देंगे हम 

इनका खूँखार इरादा 

छुपकर वार किया करते हैं

ये कायर हत्यारे 

तीन-तलाकों से 

खंडित होता मासूम निकाहा 

माथे का सिन्दूर 

अग्निकुण्डों में होता स्वाहा 

जिव्हाएँ लपलपा रहे हैं

अर्थ पिशाच शरारे 

रोज आत्महत्या करते हैं 

कृषक कर्ज में डूबे

और घोषणावीरों के 

हैं उदासीन मन्सूबे 

अग्निबीज बोने उकसाते

नेता कुटिल हमारे

000












उनकी मालगुजारी


हम मजदूर भिखारी जैसे 

उनकी मालगुजारी 

जिनके घर में बंधुआ बनकर

रहे बाप-महतारी 

उनके ढोर चराये 

उनके खेतों में तन ओंटे 

अगर मजूरी माँगी तो फिर 

तन पर खाये सोंटे 

वर्षा, ठंड, कड़ी गर्मी में

की उनकी रखवारी 

एक जून भूखे रह करके 

हम कर रहे गुजारा 

और वहाँ वे पशुओं तक का 

चर जाते हैं चारा 

उनके अच्छे दिन आये

पर है अपनी लाचारी 

मृगछौने से भूखे बच्चे 

मालिक हुए कसाई 

मँहगाई है मर्ज 

कि जिसकी मिलती नहीं दवाई 

रिश्वतखोरी बढ़ी

छूत की है असाध्य बीमारी

000








कलियों की लाचारी है


जहाँ पाठशाला बच्चों की 

खोली वहीं कलारी है 

चौकस चुश्त पुलिस वालों की

गश्त वहीं पर जारी है

सड़कों पर झूमा करते हैं 

भरी भीड़ में ज्यों चौपाये 

किसके प्राण कहाँ ले लेवें 

जान बची तो लाखों पाये 

यह साँडों का झुण्ड नहीं है

यह अमला सरकारी है 

रोज उजाड़ रहे झोपड़ियाँ 

अन्याक्रान्ति हटाने वाले 

रातों रात हवेली तानें 

उसी जगह पर दमखम वाले 

मंत्री और बाहुबलियों की

रहती हिस्सेदारी है

लम्बे-लम्बे भाषण देते 

पर्यावरण बचाने वाले 

नीलामी कर रहे चमन की 

बाग-बगीचों के रखवाले 

जो भी चाहे इनको मसले

कलियों की लाचारी है

000









वैमनस्य की चौड़ी खाई


उनके यहाँ सदा सावन है

यहाँ एक बौछार न आई

उन पर लक्ष्मी महरबान है 

रुपये छप्पर फाड़ बरसते 

नहीं हमारे छप्पर-छानी 

बूंद-बूंद को रहे तरसते 

बच्चों की गुल्लक मुँह बाये

जुरें न उसको घेले-पाई 

रही तरसती मिली न कैरी 

नई बहू को आती मतली 

उनके घर लतयाये जाते

आम दशहरी, लँगड़ा, फजली 

यहाँ न गोरस नौनिहाल को

वहाँ श्वान को दूध मलाई 

राजा भोज आज के मंत्री 

दुखी श्रमिक हैं गंगू तेली 

श्रमसेवी को झोपड़ पट्टी 

जमाखोर की तनी हवेली 

बीचों-बीच धनी-निर्धन के

वैमनस्य की चौड़ी खाई

000











भेड़िये हुँकारते हैं


मिल सकेगा त्राण

कैसे आपदाओं से

आत्मघाती जो 

इरादे पल रहे हैं 

ये उभरती पीढ़ियों को 

छल रहे हैं लाभ प्रतिभा को

न होगा वर्जनाओं से 

हो रही खूँखार 

उत्तेजक जवानी 

दिख रही मदहोश 

अड़ियल राजधानी 

अस्मिता आहत

अराजक क्रूरताओं से

शौर्य का सम्मान 

मिलता है सियारों को 

वाहवाही, तालियाँ हैं 

दुष्प्रचारों को 

भेड़िये हुँकारते हैं

कन्दराओं से

000












प्रदूषण की पैनी फाँसें


भौतिकता में 

क्या खोया 

क्या पाया

चलो गुनें 

बारूदों से हमने 

लिक्खी नई कहानी है 

हमने नहीं 

मूल्यवत्ता पानी की जानी है 

अग्नि, पवन, जल 

व्योम, धरा के

बिखरे सूत्र चुनें 

पल में आज उखड़ने लगती हैं 

जवान साँसें 

अंतस में गड़ रहीं 

प्रदूषण की पैनी फाँसें 

क्या कहती है गर्म हवा

उसकी भी बात सुनें 

पंचतत्व के यशोगान 

ऋषियों ने गाये थे 

जीवन के संदेश 

भोजपत्रों में पाये थे 

चलो प्रकृति का

हरियल ताना-बाना पुनः बुनें

000








है अंधानुकरण


किया विश्व-बाजारों ने

अपना सुख चैन हरण 

गाँवों की गलियों को छोड़ा 

हम शहरों में आये 

धकियाते चलते सड़कों पर 

पढ़े-लिखे चौपाये 

युवकों के स्टंट

मौत को देते आमंत्रण 

काट-काटकर खायीं 

हमने पशुओं की बोटी 

पिछड़ेपन की द्योतक हो गई 

दूध-भात रोटी 

जन्म दिवस पर दीप बुझाना

है अंधानुकरण 

बहुत बुरा लगता युवकों को 

दादी का लड़याना 

उन्हें मसालेदार 

सुहाता ढाबे का खाना 

लगा पश्चिमी फैशन का

संस्कृति पर आज ग्रहण

000












हम खुद्दार अभागे

हमने कभी सलाम न ठोके

बाहुबली के आगे

सत्ता से, हम बना न पाये 

रिश्ता कभी करीबी 

हमको घेरे रही 

क्रूर मँहगाई और गरीबी 

तन पर कोड़े पड़े

अगर हमने अपने हक माँगे 

चाटुकारियों ने सत्ता के 

खूब नगाड़े पीटे 

धनीराम वे हुए

और हम बुद्धुराम, घसीटे 

भाग्य चाटुकारों के जागे

हम खुद्दार अभागे 

पंगु प्रजा कैसे चढ़ पाये 

सुख की कठिन पहाड़ी 

रोज-रोज मजदूरों को 

मिलती है कहाँ दिहाड़ी 

साँड चरेंगे अधिकारों को

अगर नहीं हम जागे

000











घातक भ्रष्टाचार हुए


कभी नहीं बापू वाले 

सपने साकार हुए 

नौटंकी करने वाले

चर्चित किरदार हुए 

जड़ से किया सफाया 

गाँवों के उद्योगों का 

होने लगा पलायन 

शहरों को अब लोगों का 

रहे न घर के और घाट के

यूँ लाचार हुए 

गाँवों में सरपंच 

शहर में मुंसिफ बिकते हैं 

रिश्वत लेते हुए 

भ्रष्ट अधिकारी दिखते हैं 

राष्ट्र सुरक्षा में भी

घातक भ्रष्टाचार हुए 

राजनीति के बादल फटते 

नदियाँ उफनाती 

बच जाते हैं महल 

किन्तु झोपड़ियाँ बह जाती 

ऐसे ही दुर्दान्त हादसे

बारम्बार हुए

000









अकाल का झंडा गाड़ा है


आज प्रदूषण ने

अकाल का झंडा गाड़ा है 

कहीं अवर्षा और 

कहीं बादल फट जाते हैं 

कहीं बाढ़ से गाँव बहें 

पर्वत ढह जाते हैं 

हमने, पर्यावरण और

ऋतुचक्र बिगाड़ा है 

नदी, जलाशय और 

न ही पोखर भर पाये हैं 

साइबेरिया से उड़कर 

मेहमान न आये हैं 

हमने धरती का लुभावना

आँचल फाड़ा है 

मिले न सुरभित हवा 

नहीं मोहक हरियाली है 

रोगों की सिर पर मँडराती 

छाया काली है 

जड़ी-बूटियों का गुणकारी

सुलभ न काढ़ा है

000











घर में आग लगी


अपने घर के दीपक से ही

घर में आग लगी 

हमने तुलसी को उखाड़कर 

रोपी नागफनी 

आज केक्ट्स के गमलों से 

सज्जित बालकनी 

रेशम जैसे रिश्तों में भी

गाँठें आज लगीं 

ढाई आखर के उपदेशक 

अब गुमनाम हुए 

नफरत बोने वाले साधू 

चर्चित आम हुए 

मन्थराएँ जो घर फोडू

वे लगने लगीं सगी

वैश्वीकरण उदारवाद हैं 

आकर्षक प्यारे 

मीठे विज्ञापन के हैं 

उत्पाद सभी खारे 

भड़कीले चित्रों के कारण

तृष्णा और जगी

000











क्रूर, कुटिल नाते हैं


अमराई छैया के

दिवस याद आते हैं 

टी.वी. के रोगी सा 

सावन मुरझाया है 

हाँफ-हाँफकर 

मल्हार मेघों ने गाया है 

सावन औ’ भादों

अब धूल में नहाते हैं 

उजड़े वीरान आज 

टेसू औ’ सेमल हैं 

घने-घने ऊग रहे 

लोहे के जंगल हैं 

मधुमासी चर्चा से

लोग सकपकाते हैं 

गंध खो चुकी अपनी 

आज रातरानी है 

सूख गया, कलियों की

आँखों का पानी है 

पशु-पक्षी से मानव के

क्रूर कुटिल नाते हैं

000











भुक्तभोगियों के यथार्थ


चुहुलबाजियाँ मंचों से

नवगीत न करते हैं 

गीतों ने अब घिसे-पिटे 

सम्बोधन छोड़े हैं 

नूतन लय-छन्दों से 

अपने-नाते जोड़े हैं 

युग की पीड़ा का अनुगायन

डटकर करते हैं 

क्षेत्रवाद से विश्वग्राम तक 

पहुँच गई कविता 

श्रृंगारिक रसवंतबाद से 

निकल गई कविता 

भुक्त भोगियों के यथार्थ

संत्रास उतरते हैं

गुड़ खा लेते हैं 

उनको गुलगुले नहीं भाते 

प्रकृति छटा से तोड़ लिए 

जिनने सारे नाते 

लोक सरोकारों से

नेहिल निर्झर झरते हैं

000












दागती कोयल गोली है


अब मिठास को त्याग

दागती कोयल गोली है 

छोड़े गर्म उसास 

हवा छिप-छिपकर रोती है 

लटें बालियों की बिखरायें 

फसलें रोती हैं 

अमराई से लौटा करती

खाली झोली है 

सूखे के आसार 

धरा के तन पपड़ाये हैं 

बूढ़े बरगद दादा 

बैठे मुँह लटकाये हैं 

होली नीरस हुई

मात्र हुरदंग, ठिठोली है 

हरियाली के साथ 

हुई घातों पर घातें हैं 

दिन डरावने हुए 

भुतैली लगती रातें हैं 

कितनी कर्कश हुई

गिद्ध कौओं की बोली है

000










पनप रहीं संकीर्ण वृत्तियाँ


लाभ-हानि से आँकी जाती है

अब रिश्तेदारी 

पनप रहीं संकीर्ण वृत्तियाँ 

कुटिल स्वार्थी मन में 

इसीलिए संतुष्टि न मिलती 

मानव को जीवन में 

शंकाएँ अब, सम्बन्धों की

करतीं पहरेदारी

यानों से नापा है 

हमने धरती और गगन को 

फिर भी शांति नहीं मिलती है 

इस मनुष्य के मन को 

वेद और विज्ञान सभी हैं

मानव के हितकारी

ऋषियों, मुनियों ने पहले ही 

पृष्ठ ज्ञान के खोले 

विज्ञानों ने धरा-प्रकृति के 

गुप्त रहस्य टटोले 

सही राह चुनने की है

अब अपनी जिम्मेदारी

000











जहरीली हुई आज देश की हवा


जहरीली हुई

आज देश की हवा 

समाधिस्थ वृक्ष

सभी ठाँड़े अब मौन 

गर्मी में धूप से 

बचाते थे जौन 

उनको संत्रास से 

बचायेगा कौन 

कुचलने के बाद

हरी है पुनर्नवा 

बालू में मुँह छिपाये 

फल्गू नदी 

पाँव में प्रदूषण की 

बेड़ियाँ बदीं 

कहीं है अकाल 

कहीं गैस त्रासदी 

जंगलों के सिवा

कौन देगा दवा 

कितने अनजाने से 

हुए आज गाँव 

रेत में गरीबों की 

चले कैसे नाव 

जंगल तक आ गये 

कुठारों के पाँव 

रोयें सागौन

साज, शीशम, धवा

000







ढोर गँवार हुए


चोर लुटेरे हत्यारे 

मुखिया सरदार हुए 

पर अनपढ़ भोले मतदाता

ढोर गँवार हुए

सत्ता पाते ही उनके 

आबाद हुए बंजर 

किन्तु गरीबों के 

घर-बाड़ी बिके ढोर डंगर 

ऐसे हमें उखाड़ा

ज्यों हम खर-पतवार हुए 

उनको सर्दी होती 

तो वे स्वर्ण भस्म खाते 

हमें कुपोषण होने पर 

वे लंघन करवाते 

रोग गरीबी का हरने

यूँ ही उपचार हुए

डाकू सब फरार हो जाते 

बैंक लूट करके 

हमसे जुर्म कबुलवा लेते 

मार-कूट करके 

हम मतदाता अपराधी,

वे थानेदार हुए

000








शिलालेख इतिहासों के


करते हैं रहस्य उद्घाटित

शिलालेख इतिहासों के 

पाषाणों में छिपी साधना 

इनमें धड़क रही हैं सदियां 

इनके चिन्तन को कुरेदना 

यहीं सिसकती हैं त्रासदियां 

कुछ के तन पर बने हुए हैं

कशाघात संत्रासों के 

कहीं किसी अश्वारोही ने 

साध रखी मन की वल्गाएँ 

कहीं घूर्णित रथचक्रों से 

हुई प्रकंपित दसों दिशाएं 

भाव यहाँ जीवन्त हुए हैं

पतझर के, मधुमासों के 

अंकित कहीं काम की क्रीड़ा 

झलके कहीं हृदय की पीड़ा 

कहीं ताण्डव का नर्तन है 

अंकित उद्भव और पतन है 

कहीं अर्थ अधखुले अभी तक

शंका के, विश्वासों के

000










बिखरा है सर्वत्र खजाना


तुमने मन के द्वार न खोले

सांकल जड़े किवाड़ न खोले 

खुद, बसंत घर से लौटाया 

तुम्हें न पंचम राग सुहाया 

स्वयं ओढ़कर रखी उदासी 

खुशी बाँटते अगर जरा सी

नहीं तड़पते शब्द अबोले

तुम्हें गैर का सुयश न भाया 

खुद कुण्ठा को है अपनाया 

कहते हो मौसम हैं रूठे 

ओढ़े हैं आडम्बर झूठे

इसीलिए खाये हिचकोले

तुमने देखी सिर्फ बुराई 

कभी न स्वीकारी सच्चाई 

नहीं सत्य को तुमने जाना 

बिखरा है सर्वत्र खजाना

प्रकृति झुलाती रही हिण्डोले

000














याद आते चुलबुले दिन


गाँव के वे दुधमुंहे दिन

याद आते चुलबुले दिन 

झरझराती जब फुहारें 

वे नदी की तेज धारें 

नाव कागज की बहाकर 

कूदते नंगे नहाकर

मस्त मोहक थुल-थुले दिन 

खेलकर घंटों चिटीधप 

और हम जाते थे जब थक 

गोद में चिपका के नानी 

कान में भरती कहानी

खो गये वे चुलबुले दिन 

गूँजने लगती प्रभाती 

प्यार से दादी जगाती 

झुण्ड में आ चहचहाते 

कान में रस घोल जाते

वे रुई से गुलगुले दिन

000















बनाएँगे अब स्मार्ट सिटी


झोपड़ियों को हटा

बनाएँगे अब स्मार्ट सिटी 

अरबों-खरबों का भारी 

फिर बजट बनाया है 

घोटालेबाजों को 

फिर से काम दिलाया है 

होने लगी कमीशनखोरी

फिर से घिसी-पिटी 

खोजबीन हो रही 

पुराने ठेकेदारों की 

जिनकी साख बनी है 

भारी भ्रष्टाचारों की 

खेल रहीं चालाक बीबियाँ

क्लब में रोज किटी

बचा-बचा अपने वालों को 

लेफ्ट टर्न तोड़े 

अतिक्रमण के पड़े 

गरीबों पर फिर से कोड़े 

अस्सी फुट की सड़क

देखिये पचपन में सिमटी

000











हस्तिनापुर की परिपाटी


हमने अब तक नहीं

विषमता की खाई पाटी 

एक ओर तो रहा देश में 

मौसम रंगीला

और दूसरी ओर 

अभावों का ऊँचा टीला 

है कितना वैषम्य

झाबुआ, गोवा, गोहाटी 

राजहंस हो गये अचानक 

गायब झीलों से 

दुर्भिक्षों में गये न मिलने 

बैगा-भीलों से 

आहंे भरती रही

बंजरों की बीहड़ घाटी 

बेशर्मों ने, किया धरा का 

निर्मम चीर हरण 

इकतरफा ही रहा 

देश का नव रूपान्तरण 

दिखती है सर्वत्र

हस्तिनापुर की परिपाटी

000











तर्पण, पितर मिलौनी


खुशियाँ करती रहीं हमेशा

हमसे आँख मिचौनी 

हँसी कहीं खो गई 

अधर पर चिपकी रही उदासी 

फेका जाता अन्न 

किसी को मिले न रोटी बासी 

दुर्लभ, पेज, महेरी

सब्जी पतली और अलौनी 

बार-बार मैली हो जाती 

अब विकास की गंगा 

कहीं मॉब लिंचिंग लज्जास्पद 

कहीं मजहबी दंगा 

कितनी क्रूर कुरीति

बेटियों की निर्लज्ज खतौनी

वृद्धाश्रम में भेजे जिनने 

बूढ़े बाप-मतारी 

मृत्यु भोज का करें दिखावा 

बेटे अत्याचारी 

करने लगे कपूत वही

अब तर्पण, पितरमिलौनी

000










फगुनाई इच्छाएँ


कितना तड़पातीं रातों में

फगुनाई इच्छाएँ 

दूर कहीं ज्यों सिसक रही हों 

नूपुर की ध्वनियाँ 

खिलने को व्याकुल, मुरझाईं 

कचनारी कलियाँ 

कितना भटकातीं सपनों में

मृग मरीचिकाएँ 

लगे गगन से पंख पसारे 

चंचल सोनपरी 

अर्ध निमीलित नयनों में 

धीरे-धीरे उतरी 

फागुन में रितुराज

न रंग की गागर छलकाएँ

पहले प्रकृति नवेली 

कितनी रहती बनी-ठनी 

फागुन में सुलगा देती थी 

जो कामाग्नि घनी 

उन दृश्यों के सूत्र

आज हम पकड़ नहीं पाएँ

000











हुई तबाही है


हर आदर्श चरित्र बना है

पिछलग्गू हुरदंग का 

दंगों में हर बार 

यहाँ पर हुई तबाही है 

गई मौत के घाट 

मुखर जो हुई गवाही है 

जहाँ दरोगा माना करता है

आदेश दबंग का 

सत्ता से अपराधी का 

दिख रहा मेल है 

कानूनों पर दौलत ने 

कस दी नकेल है 

भयाक्रान्त कर रहा आमजन को

उन्माद लफंग का 

संसद में जाकर प्रतिनिधि 

दुश्मनी भँजाते हैं 

समाधान की जगह 

धजी का साँप बनाते हैं 

सत्ता और विपक्ष

नजारा दिखलाते हैं जंग का

000











भाग्य से अपनी नहीं पटी


श्रम से नाता रहा

भाग्य से अपनी नहीं पटी 

गहरा रिश्ता रहा 

सदा भुखमरी-गरीबी से 

विपदाओं ने साथ दिया 

हर बार करीबी से 

हमें दागते रहे

क्रूरता के चिमटा-चिमटी 

रखे बही-खातों में 

अपने रहन अँगूठे हैं 

ब्याज-त्याज हम चुका रहे 

वे कहते झूठे हैं 

उतर न पाया कर्ज

इसी चिन्ता में उमर कटी

हमें ढालने हर साँचे में 

मालिक ने पिघलाया 

उन पर बार हुआ तो 

हमको रक्षाकवच बनाया 

हमसे रहे महल बनवाते

हमें न दी गुमटी

000











साजिशें रचकर घिनौनी


है भटकती आत्मा

अब तक पुराने तख्त की 

साजिशें रचकर घिनौनी 

जो कभी हथिया लिया था 

स्वार्थी अंधे युगों ने 

कत्ल अपनों का किया था 

गंध आती है अभी भी

रन्ध्र से उस रक्त की 

मांसाहारी गिद्ध 

भले ही नजर न आते हैं 

पाँच वर्ष के बाद 

हंस बनकर मँडराते हैं 

भाँप लेते हैं कुटिल

सारी नजाकत वक्त की 

नोटों से हथकड़ी काटकर 

भागें अपराधी 

लटकाये जाते फाँसी पर 

हरिश्चन्द्र गाँधी 

हँसी उड़ाई जाती है

हर जगह राष्ट्र के भक्त की

000












अज्ञात दिशाओं में


उन्नति का उजयारा 

अब तक नहीं गया 

रूढ़िग्रस्त आदिम तम की

घनघोर गुफाओं में 

आजादी के सारे सपने 

चकनाचूर हुए 

बलिदानी परिवार सभी 

सत्ता से दूर हुए 

खोज रहे स्वर्णिम भविष्य

अज्ञात दिशाओं में 

आम आदमी घिरा आज भी 

भूख अकालों में 

बँट जाता लाभांश प्रगति का 

कुटिल दलालों में 

हुआ तुषारापात सदा

फलती आशाओं में 

कस्तूरी वाले हिरणों सा 

यह मतदाता है 

सत्ता का मरुजल इसको 

प्यासा तरसाता है 

ग्लोबल का भी ब्याज बढ़ा

इनकी पीड़ाओं में

000








सूर्य उगाना होगा


मिले रोशनी तुम्हें

तुम्हीं को सूर्य उगाना होगा 

उद्यत हों जब हाथ 

उठाने जली मशालों को 

तब शायद पहचान मिले 

पिछड़े संथालों को 

एक साथ अब इन्कलाब का

बिगुल बजाना होगा 

धरे हाथ पर हाथ 

न कोई हल होगा मसला 

करो संगठित अब कुदाल 

अपने गेंती तसला 

बिखरे हुए स्वरों को

अब इक साथ मिलाना होगा

अगर समझ लोगे कीमत 

अपने मतपत्रों की 

ताकत खुद बढ़ जाएगी 

संसद के सत्रों की 

तिमिर निराशा का मिटवाने

शौर्य जगाना होगा

000












कड़वे दिवस बिताये हैं


जहाँ छद्म हो वहाँ

भला क्या सच्चाई दिखती 

उनसे पूछो जिनने 

कड़वे दिवस बिताये हैं 

मीठे फल चाहे थे 

खट्टे अनुभव पाये हैं 

धुंधले दरपन में

तस्वीरें साफ नहीं दिखती 

बरबस मुस्कानें चिपकाकर 

दुख सह लेती हैं 

निश्छल आँखें किन्तु हमारी 

सच कह देती हैं रोटी तो मिलती हैं

पर पहले अस्मत बिकती 

चलती है दरबारों में 

अब केवल लफ्फाजी 

जी हुजूर कहकर 

पुतले की सहते नाराजी 

बिकी कलम, कायरपन को तक

शौर्य रही लिखती

000











बेशर्मी के ताले


सत्ता के कानों में हैं

बेशर्मी के ताले 

राजनीति में छुटभैये 

बछड़े भर रहे कुलाँचें 

किसको पड़ी जरूरत 

अपना संविधान बाँचें 

कुछ तो बंद किये हैं

कुछ की आँखों में जाले 

जहाँ देखिये वहीं घिरे हैं 

आतंकी बादल 

होते हैं विस्फोट 

भला क्या कर लेगी सांकल 

राजनीति की गंगा में

मिल रहे अपावन नाले 

सारस्वत मंचों ने 

कैसी ओढ़ी फूहड़ता 

जहाँ चुटकुलेबाज 

बड़ी बेशर्मी से पढ़ता 

कवि-कवित्रियाँ, लगें कि

जीजा, साली औ’ साले

000











राजनीति का अधोपतन


सत्ता परिवर्तन के लक्षित 

जब सिलसिले हुए 

पद हथियाने को नेता

कितने दोगले हुए

रातों रात बदल जाती हैं 

पुष्तैनी निष्ठायें 

मुद्रा मिले उठाने तो 

ये दलदल में फँस जायें 

दृढ़ निश्चय वाले चरित्र

पल में पिलपिले हुए

राजनीति का अधोपन 

कुछ दशकों में आया 

पुरखों का बलिदान, त्याग 

मिट्टी में दफनाया 

ज्यादा और गरीब-अमीरों के

फासले हुए 

दिखता नहीं विकास 

बनाये गये राज्य कितने 

अब क्या जितने नेता हैं 

होंगे टुकड़े उतने जितने प्रान्त बनाये

उतने ज्यादा जिले हुए

000










बढ़ने लगी शुगर


व्याधिग्रस्त दिखते 

गाँवों से ज्यादा आज शहर 

शक्कर महँगी किन्तु

खून में बढ़ने लगी शुगर 

करते नहीं मशक्कत 

बैठे-बैठे खाते हैं 

खूब तेल घी खाकर 

अपनी तोंद बढ़ाते हैं 

क्यों चिन्ता रहती

भर देते इनकम टैक्स अगर

जो महनतकश 

उन्हें न कोई रोग सताते हैं 

चर्बी उन्हें न चढ़ती 

रूखा-सूखा खाते हैं 

उनके भूखे पेट

हजम कर जाते हैं पत्थर 

भले गरीबी, विपदाओं से 

घिरी रहे बस्ती 

लोक धुनों में नाचें-गायें 

करें श्रमिक मस्ती 

बंजर में भी फसल उगाते

इनके बैल बखर

000










होते लोग हलाल


लूट रहे भोली जनता को 

शहरों के ये माल 

सीना ताने जहाँ पहुँचकर

होते लोग हलाल 

इन मालों के तले दबे हैं 

छोटे लघु उत्पाद 

इन भड़कीले बाजारों की 

है पुख्ता बुनियाद 

मध्यम वर्गी जीवन शैली के

जी के जंजाल 

हैं उतरन के लिए विवश 

ये श्रम सेवी मजदूर 

सदा पहुँच से ऊपर फलते 

सुख के पिंडखजूर 

ये अलभ्य को नहीं ललकते

हैं निर्धन कंगाल

समा गये इनके गालों में 

लघु कुटीर उद्योग 

शोषणकारी अर्थव्यवस्था 

करती नये प्रयोग 

तरुणाई को भटकाता है

भ्रामक मायाजाल

000








प्यासी जर्जर दुखी नदी है


कोई दानी प्यास बुझा दे

प्यासी जर्जर दुखी नदी है 

दरक रहे हैं अंग 

भसकने लगे 

सभी तटरक्षक टीले 

अंग-भंग कर रहे माफिया 

छीनें रजत वस्त्र रेतीले 

बहकर आता कीच, मूत्र, मल

वही गंदगी इसे बदी है 

टूट न जाएँ इनकी साँसें 

हैं बीमार सहायक सखियाँ 

नभ पर घटा तलाश रही हैं 

व्याकुल इन नदियों की अँखियाँ

पुनः भगीरथ देने में

अब सक्षम दिखती नहीं सदी है 

रहा अंधविश्वास 

नदी की हमने नजर उतारी 

किन्तु कीच, मल-मूत्र मिलाना 

अब तक उसमें जारी 

साक्षरता यूँ बढ़ी

रूढ़ियाँ मन पर रहीं लदी

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उत्तेजक हो रही सभ्यता


उत्तेजक हो रही सभ्यता 

घूमे अंग उघार 

उगल रही है अतः लेखनी

शब्द नहीं अंगार 

होड़ लगी है किसने कितने 

कपड़े पहने झीने 

ललचाती श्वानों की जिव्हा 

यौवन का रस पीने 

चैनल सभी परोस रहे हैं

टी. वी. पर व्याभिचार 

कौये और हंस में 

कोई अन्तर नहीं रहा 

कोका और पेप्सी में 

अब चातक नहा रहा 

करता है पथभ्रष्ट सभी को

भड़कीला बाजार

सांस्कृतिक संकल्पों को 

तृष्णा ने तोड़ा है 

हरियाली चर रहा 

पुष्ट दौलत का घोड़ा है 

विश्वग्राम बन गया, बेचने

विध्वंसक हथियार

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कण-कण जहरीला है


परवशता में छोड़ गाँव 

हम शहर चले आये 

एक बार टूटे रिश्ते

फिर कभी न जुड़ पाये 

हमने मेहनत कर

खेतों में अन्न उगाया है 

हम मजदूरों से 

मालिक ने वैभव पाया है 

बदले में श्रमिकों ने

अक्सर कोड़े ही खाये 

राशन की दुकानों में भी 

बड़ी कतारें हैं 

लाचारी की नाव

और जर्जर पतवारें हैं 

तृष्णा की भँवरों में

बेबस डूबे उतराये 

दम घुटता है यहाँ 

जहाँ कण-कण जहरीला है 

उजले कागज पर हो जाता 

काला-पीला है 

अस्मत के आभूषण तक

हम बचा नहीं पाये

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हत्थे पर हमीं चढ़े


बिना किये अपराध

हमारे सिर पर गये मढ़े 

फैलाता आतंक गाँव में 

मुखिया का बेटा 

सुने नहीं फरियाद 

दरोगा पीकर है लेटा 

किसकी हिम्मत है जो

अर्जी लेकर वहाँ बढ़े 

आश्वासन दे जाते हैं 

हर बार चुनावों में 

मरहम नहीं लगाते नेता 

रिसते घावों में 

लूट-पाट उनने की

पर हत्थे पर हमीं चढ़े 

साहूकार जमींदारों के 

लिखतम झूठे हैं 

गिरवी रखे जहाँ पुरखों के 

कटे अँगूठे हैं 

जीवन बीता कर्ज चुकाते

आखर बिना पढ़े

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